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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (कौमुदी मूर्छामभिनयति।)
(नेपथ्ये) भो भोः पदातयः! कृतावधानैर्मध्ये प्रवेष्टव्यम्, अपि नाम दस्युः प्रहारमादधीत ।
मित्रानन्द:- (विलोक्य) सपरिकरः प्राप्तः पुरीरक्षकः। (ततः प्रविशति कालपाश: दीर्घदंष्ट्र-वराहतुण्डप्रभृतिकश्च परिवारः।) कालपाश:- दीर्घदंष्ट्र ! मध्यमवलोकय । दीर्घदंष्ट्रः- (विलोक्य) राजपुत्र! अस्ति किमपि मानुषमभ्यन्तरे। कालपाश:- (सक्रोधमुच्चैःस्वरम्) मुषित्वा पौराणां नवकनक-माणिक्यघटितां
चिरं काञ्ची-चूडामणि-मुकुट-ताडङ्क-कटकान्। क्व रे यासि क्षुद्र!, द्रुततरमगाराद् भव बहिः, स्वयं क्रुद्धस्तुभ्यं पितृपतिरिदानीं न भवसि।।१५।। (कौमुदी मूर्छा का अभिनय करती है।)
(नेपथ्य में) अरे अरे सैनिको! सावधानीपूर्वक अन्दर प्रवेश करो, हो सकता है कि यह लुटेरा तुम पर प्रहार कर दे।
मित्रानन्द-(देखकर) नगररक्षक अपने अनुचरों के साथ पहुंच गया है।
(तत्पश्चात् दीर्घदंष्ट्र, वराहतुण्ड प्रभृति अनुचरों के साथ कालपाश प्रवेश करता है।)
कालपाश-दीर्घदंष्ट्र! भीतर देखो। दीर्घदंष्ट्र-(देखकर) राजपुत्र! भीतर कोई मानुषी आकृति है। कालपाश-(क्रोधपूर्वक ऊँची आवाज में)
रे क्षुद्र! नगरवासियों के स्वर्ण, माणिक्य आदि से निर्मित नये-नये करधनी, चूड़ामणि, मुकुट, कुण्डल, कङ्गन आदि आभूषणों को चुराकर जल्दी-जल्दी कहाँ भाग रहे हो? शीघ्र मन्दिर से बाहर निकलो। स्वयं यमराजरूपी कालपाश के क्रुद्ध होने पर तुम बच नहीं सकते।।१५।।
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