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सप्तमोऽङ्कः पल्लीपति:- सार्थवाह! किमभिधानोऽसि? सार्थवाह:- मकरन्दाभिधानोऽस्मि।
सुमित्रा- (सवितर्कमात्मगतम्) किं एसो सो मयरंदो जस्स अहं रयणायराहिवइणा परिणेदुं पडिवादिदा ? (पुनः सस्पृहम्) जइ एसो च्चिअ सो ता कदत्थो मे जम्मो।
(किम् एष स मकरन्दः ? यस्याहं रत्नाकराधिपतिना परिणेतुं प्रतिपादिता। यदि एष एव स तत् कृतार्थं मे जन्म।)
कौमुदी- (सविमर्शमात्मगतम्) किं एसो सो मह भत्तुणो मित्तं मयरंदो? दिट्ठिया, दिट्ठिआ, जीविद म्हि भत्तुणो मित्तस्स दंसणेण।
(किम् एष स मम भर्तुमित्रं मकरन्दः? दिष्ट्या, दिष्ट्या, जीविताऽस्मि भर्तुमित्रस्य दर्शनेन।) सार्थवाहः- (सुमित्रां निरूप्य स्वगतम्) अस्यां जगन्नयनकैरवचन्द्रिकायां,
सत्यामपि त्रिभुवनस्थितिसूत्रधारः। लक्ष्यां स यादसि रतिं हरिरादधानः,
प्रेम्णो विचारविमुखां दिशति प्रशस्तिम्।।१०।। पल्लीपति-सार्थवाह! तुम्हारा नाम क्या है? सार्थवाह- मेरा नाम मकरन्द है। ।
सुमित्रा-(अनुमान लगाती हुई मन ही मन) क्या यह वही मकरन्द है जिसके साथ रत्नाकरनरेश ने मेरे विवाह का निश्चय किया है? (पुन: रुचिपूर्वक) यदि यह वही है, तब तो मेरा जन्म सफल हो गया।
कौमुदी-(सोचती हुई मन ही मन) क्या यह मेरे पति का मित्र वही मकरन्द है?
सार्थवाह-(सुमित्रा को देखकर मन ही मन)
जगत् की नेत्ररूपिणी कुमुदिनी के लिए चन्द्रिका के समान इस (सुन्दरी) के होते हुए भी समुद्रजाता लक्ष्मी में ही अनुरक्त रहने वाले तीनों लोकों के सञ्चालक भगवान् विष्णु प्रेम की विचारविमुखता (अन्धत्व) को द्योतित कर रहे हैं।।१०।।
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