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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मैत्रेय:- भो उपहारपुरुष !
दैवादुपस्थिते मृत्यौ क्षीणसर्वप्रतिक्रिये। तथा कथञ्चिन्मर्तव्यं न मर्तव्यं यथा पुनः।।१६।।
अहं च सर्वदर्शनानां क्रियासु कुशलो विशेषतश्चाहतीषु, तत् कथय किं ते कुलम्?, किं ते कुलक्रमागतं दैवतम्? येन तदुचितां पारलौकिकी क्रियां कारयामि। अपि च
बन्धुभिर्विप्रयुक्तोऽहमिति चेतसि मा कृथाः।
बन्धूनां सम्प्रयोगेऽपि त्वमेव सहसे व्यथाः।।१७।। पुरुषः- (मन्दस्वरम्) आर्य! गाढबन्धनपीडया शुष्कतालुमूलः स्तोकमपि वक्तुमहं न प्रभविष्णुः, ततः शिथिलय मे मनाग् बन्धनानि, पायय शिशिरस्य वारिणश्शुलुकमेकम्।
विजयवर्मा- कोऽत्र भोः?
मैत्रेय- हे बलिपुरुष!
संयोगवश मृत्यु के उपस्थित हो जाने पर अर्थात् मृत्यु के अवश्यम्भावी होने पर यदि मरना भी पड़े तो अंग चेष्टादि सभी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का त्याग करके अर्थात् पादोपगमन समाधि-मरण द्वारा इस प्रकार मरना चाहिए, जिससे उसको पुन: न मरना पड़े, अर्थात् मुक्ति मिल जाय।।१६।।
मैं सभी विद्याओं, विशेषत: आर्हत् अर्थात् जैन परम्परा के विधि-विधानों में कुशल हूँ, तो बतलाओ तुम किस कुल के हो? तुम्हारे कुलदेवता कौन हैं? जिससे कि मैं उसके अनुरूप पारलौकिकी क्रिया सम्पन्न करा सकूँ। और भी
मैं अपने सगे-सम्बन्धियों से बिछुड़ रहा हूँ, ऐसा विचार तुम मन में मत करना, क्योंकि बन्धुजनों का संयोग होने पर भी दुःख तो तुमको ही सहना होगा।।१७।।
पुरुष-(धीमी आवाज में) आर्य! अत्यन्त कसे हुए बन्धन की पीड़ा से सूखे हुए कण्ठ वाला (प्यास से व्याकुल) मैं कुछ भी बोल पाने में समर्थ नहीं हूँ, अत: बन्धनों को कुछ ढीला कीजिए और एक चुल्लू ठण्डा पानी पिलाइये।
विजयवर्मा-अरे! यहाँ कौन है?
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