Book Title: Kashayjay Bhavna
Author(s): Kanakkirti Maharaj
Publisher: Anekant Shrut Prakashini Sanstha

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Page 4
________________ *************************** कषायजय भावना हुए कहते हैं जो सम्यग्दर्शन, देशसंयम, सकलचारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप आत्मा के विशुद्ध परिणामों को कसती है अर्थात् धातती है उसे कषाय कहते हैं। कषायों की मुख्य चार जातियाँ हैं - अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन | जो कषायें अनन्त संसार को बढ़ाती हैं, उन्हें अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। जो कषायें अणुव्रतों का घात करती हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। जो कषायें सकलसंयम अर्थात् मुनियों के व्रतों का घात करती हैं. उन्हें प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। जो कषायें यथाख्यात चारित्र का घात करती हैं, उन्हें संज्वलन कषाय कहते हैं। अथवा सं यानि समीचीन, जो विशुद्ध संयम को जलाती हैं, उन्हें संज्वलन कषाय कहते हैं। संसार की जड़ कषाय है। कषाय अत्यन्त दुर्जय शत्रु है । कषाय सम्पूर्ण बुराइयों का घर है। कषाय पापों के जनक है। हिंसा आदि पाप कषायों के आवेश में ही होते हैं। कषाय मनुष्य के स्वभाव में आये हुए ऐसे मनोविकार हैं, जो निरन्तर मनुष्य की मानसिक एवं शारीरिक योग्यताओं का विनाश किया करते हैं। आधुनिक तत्त्वचिन्तकों ने कषायों को मानसिक विष की उपमा दी है। जिसप्रकार विष का सेवन करने पर प्राणों की हानि होती है, उसीप्रकार कषायविष का सेवन करने पर विवेक बुद्धि और स्वास्थ्य आदि का विनाश होता है। कषायों के सद्भाव में अपनी मनुष्य आत्मोन्नति नहीं कर सकता। मन में उठने वाली कषायों की लहरें मुख्यरूप से शारीरिक स्वास्थ्य का विघात करने वाली हैं। कषायों के कारण स्नायुसंस्थान पर तीव्र आघात पैदा होता है, रक्तचाप बढ़ जाता है, पेशियाँ तन जाती हैं, मनोवेग प्रबल हो जाते हैं और पाचनक्रिया की गड़बड़ी, अनिद्रा तथा दुर्बलता आदि रोगों का | सामना करना पड़ता है। आयुर्वेद के विज्ञानी जानते हैं कि स्वस्थ शरीर में ****з7 *************

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