________________
****************
कषायजय-भावना
सर्वप्रमुख हैं। साधक इन तीनों का हस्तावलम्बन लेकर अपनी आत्मशक्ति का विकास करता है। अहंकारी मनुष्य अपने को परिपूर्ण मानता है। अतः वह भवभय का हरण करने वाले जिनेन्द्र देव के दर्शन नहीं करता, शाश्वत सुख प्रदान करने वाले धर्म को धारण नहीं करता तथा सद् गुरुओं के हितकारी वचनों का श्रवण नहीं करता। इसीलिए अभिमानी मनुष्य का कल्याण नहीं हो पाता।
न तदरिरतिरुष्टः केसरी नो हुताशो । न च जनयति दुःखं भक्षितं कालकूटम् ।। विषमपि विषधरोऽहिस्तन्नयेद्देहिनोऽस्य । जनयति बहुदुःखं मान एवातिदीर्घम् ||१३||
अर्थ- जैसे शत्रु से कुपित हुआ सिंह आग को नहीं देखता है। खाये गये विष में भी दुःख का अनुभव नहीं करता है। सर्प के विष की तरह यह मान प्राणियों को अत्यधिक दुःख उत्पन्न करता है।
भावार्थ - इस लोक में अभिमान कितना भयंकर होता है, उसका चित्रण * करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि कुपित हुआ सिंह, खाया गया विष और भयंकर सर्प भी मनुष्य की जितनी हानि नहीं करता उससे अधिक हानि मान के कारण होती है।
P
न भोजयत्यपरमात्मगृहे कदाचिन् ।
नैव स्वयं परगृहे भणितोऽपि भुड़. क्ते ।।
मानी मदज्वरसमाकुलचित्तवृत्तिः । नो वक्ति भाषयति कश्चन मोहितात्मा ||१४||
अर्थ मानी पुरुष दूसरों को अपने घर पर कभी भोजन नहीं कराता है,
कहने पर भी कभी किसी के घर नहीं खाता है। मद के ज्वर से आकुलित
************90************