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कषायज्ञय-भावना
अर्थ - लोभी मनुष्य श्रेष्ठ एवं उज्वल जिनमन्दिर नहीं बनाता है। जिनेन्द्र प्रभु की पूजन नहीं करता है। सत्संगति नहीं करता है। प्रतिदिन तपस्वियों के लिए दान नहीं देता है। इसप्रकार सोने का वर्धन करता हुआ लोभी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ - लोभी मनुष्य धन का वर्धन करने की इच्छा से निरन्तर प्रयत्नरत रहता है। वह जिनमन्दिर नहीं बनवाता पूजन नहीं करता, सत्संगति नहीं करता तथा दानादि में नहीं होगा! इतना सबकुछ करते हुए भी लोभी अतृप्त अवस्था में ही मर जाता है।
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भारं समुद्वहति हीनबलोऽपि नित्यं ।
मार्गेण गच्छति बहून्यपि योजनानि ।। क्षुद्वेदनां विसहते सहते च तृष्णां । लोभाकुलः किमथवा कुरुते न कष्टम् ||३३||
अर्थ- बलहीन होने पर भी लोभी नित्य बोझा ढोता है। कई योजनों तक पैदल यात्रा करता है। भूख और प्यास को सहन करता है। इसप्रकार लोभी मनुष्य कौनसा कष्ट सहन नहीं करता है ? अर्थात् सम्पूर्ण कष्टों को सहन करता है।
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भावार्थ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता है। धन की प्राप्ति होना या न होना कर्माधीन है इस सत्य को विस्मृत कर चुका लोभी यद्यपि परिश्रम तो करता है, किन्तु प्राप्त वस्तु में सन्तोष न होने से वह सदैव दुःखी रहता है।
लिखति सिञ्चति गायति लोभवान् कृषति सिञ्चति पाति लुनाति च । खनति धावति नौति धनाशया,
तदपि नो भवतीह धनी जनः ||३४|| ************************