Book Title: Kashayjay Bhavna
Author(s): Kanakkirti Maharaj
Publisher: Anekant Shrut Prakashini Sanstha

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Page 45
________________ . . . !.i - iram-ri ※※※※※※※※※※※※※※※※※ ANS. ANNARENTKRRI 张宏法法来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来 कनायजय-भावना अनुष्ठान निष्फल है। माया अनर्थों का बीज है। मायारूपी पिशाचनी से बचने के लिए साधक को सदैव ऐसा *] विचार करना चाहिये कि . १ . व्यवहार में दूसरों को ठगना, निश्चय से अपने-आप को ठगना है। २ - छिपकर किये जाने वाले पापों को सर्वज्ञप्रभु देखते हैं। छिपकर किये * गये पापों से तिर्यंचगति में जाना पड़ता है। ३ - सरलता और सच्चाई ही जीवन का सार है। * प्रतिदिन रात्रि में सोने से पूर्व मनुष्य को अपनी दिनभर की प्रवृत्तियों का निरीक्षण कर लेना चाहिये तथा दिनभर में हुए छल-कपट के कार्यों की | निन्दा और गर्दा करके पुनः उस कार्यों को नहीं करने का संकल्प करना *चाहिये ताकि मायाकषाय से छुटकारा मिल सके। लोभ कषाय परद्रव्य को पाने की अभिलाषा लोभ है। इन्ही आकांक्षाओं की विभीषिका में यह जीव रात-दिन जल रहा है। वह कुछ और पाने की आस | करता हुआ दुःखी रहने का मानों आदी ही हो गया है। जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ और उपभोगलोभ इन चार विभागों में विभाजित हुआ यह परम शत्रु जीवों को तीव्रतर कष्ट देने के लिए प्रतिपल तैयार बैठा है। यह लोभ सम्पूर्ण गुणों का नाशक है। वेदव्यास ने लिखा है. भूमिष्ठोऽपि रथस्थांस्तान् पार्थः सर्वधनुर्धरान् | एकोऽपि पातयामास लोभः सर्वगुणानिव || अर्थात् - भूमि पर खड़े हुए अकेले अर्जुन ने रथ में बैठे हुए सभी धनुर्धारियों, * को उसीतरह मार गिराया, जैसे लोभ सभी गुणों को नष्ट कर देता है। a लोभ शब्द को प्राकृत भाषा में लोह कहते हैं। लोह के संसर्ग से अग्नि और लोभ के संसर्ग से आत्मा कैसे दुःखी होता है ? इस बात को * बताते हुए आचार्य श्री योगीन्दुदेव लिखते हैं . __तलि अहिरणि वरि घणवडणु संइस्सय लुंचोडु। । लोहहँ लग्गिवि हुयवहहँ पिक्खु पडतउ तोडु।। 感来来来张来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来 ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ TWMaste.MathshLLML1:14NLINE

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