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HARYANANEENA
कवायजय-भावना
माया कषाय छल, कपट, प्रवंचना आदि माया के ही पर्यायवाची नाम हैं। अपने | हृदय के विचारों को छिपाने की जो चेष्टा की जाती है, उसे माया कहते हैं।
भविष्य में होने वाली हानियों का विचार न करने से, मायाकषाय के उदय से, बाहावस्तुओं की अत्यधिक आसक्ति से, धन कमाने की आकांक्षा से, कर्मफल या परलोक के प्रति मन में अज्ञान होने से, मान प्राप्त | करने की इच्छा से, पूर्व संस्कारों से अथवा दूसरों को गुमराह करने की भावना से मनुष्य मायाकषाय को अपनाता है। यही कारण है कि माया चोरी, ठगी और दगा आदि असत् प्रवृत्तियों को उत्पन्न करती है!
भगवती आराधना में माया के निकृति, उपधि, सातिप्रयोग, प्रणिधि है और प्रतिकुंचन ये पाँच्च भेद हैं। धन के विषय में अथवा किसी कार्य के * विषय में जिसको अभिलाषा उत्पन्न हुई है. ऐसे मनुष्य का जो फंसाने का
चातुर्य उसे निकृति कहते हैं। अच्छे परिणाम को टैंककर धर्मादि के निमित्त | | से चोरी आदि कार्य करने को उपधि कहते हैं। किसी के धरोहर का कुछ भाग हरण कर लेना, धन के विषय में असत्य बोलना, किसी को दूषण लगाना अथवा झूठी प्रशंसा करना सातिप्रयोग माया है। हीनाधिक कीमत की वस्तुओं को आपस में मिलाना, तोल और माप के साधनों को कमज्यादा रखकर लेन-देन करना आदि कार्य प्रणिधि माया कहलाते हैं। आचार्य अथवा गुरु के समक्ष दोषों की आलोचना करते समय अपने दोषों * को छिपाने की प्रवृत्ति प्रतिकुंचन माया कहलाती है।
माया दुर्भाग्य की माता है, दुर्गति का मार्ग है और अविद्या की | जन्मभूमि है। माया के पदार्पण करते ही बुद्धि विनष्ट हो जाती है। मनुष्य में SE निःसंकोच होकर पापकार्यों को करने लगता है। मोक्षमार्ग शान्ति का मार्ग | है। जहाँ कपट है, वहाँ शान्ति कहाँ ? माया विभाव परिणति है। उसके | द्वारा स्वभाव आवृत्त हो जाता है। जिसका स्वभाव आवृत्त हो चुका है, वह | | जीव केवल दुःखों को ही प्राप्त करता है।
जैसे मन्दिर में चढ़ाया गया द्रव्य पुनः ग्रहण करने हेतु निःसार है, उसीप्रकार मायाचार के द्वारा किया गया तप, धर्म और व्रतादिकों का KKAKKAKKARXXX
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