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कषायजय-भावना
क्रोध के स्थायी शमन के लिए चिन्तन की धारा बदलनी अत्यावश्यक है। जैसे कि
१. कोई व्यक्ति हमारे प्रत्यक्ष या परोक्ष में निन्दा कर रहा है, तब ऐसा विचार करना चाहिये कि निन्दाविषयक बात सच्ची है या झूठी है ? यदि बात सत्य है तो मुझे उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये अपितु उसका उपकार मानना चाहिये क्योंकि मैं उसके प्रसाद से अपना सुधार कर पा रहा हूँ। यदि झूठी निन्दा कर रहा है तो फिर सांच को आंच क्या है ? मुझे तो क्रोध करने की आवश्यकता ही नहीं रही।
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२ - कोई व्यक्ति हमें कष्ट दे रहा है, तब ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरे अशुभ कर्म के फल से ही मैं इन कष्टों को प्राप्त कर रहा हूँ। कष्ट देने वाला जीव तो निमित्तमात्र है।
३ - कोई व्यक्ति हमारी उचित बात भी नहीं मान रहा हो तो ऐसा विचार करना चाहिये कि संभवतः मेरी बात सामने वाला ठीक से न समझ पा रहा होगा अथवा मेरी शैली में कोई खोट है, जिसके कारण मेरी सत्य बात मानी नहीं जा रही है।
४ कभी-कभी किसी जड़ पदार्थ के कारण भी क्रोध आ जाता है।
उससमय ऐसा विचार करना चाहिये कि यह तो जड़ पदार्थ है। इसमें तो चेतना है नहीं। मैं यदि इसपर क्रोध करूंगा तो मेरी ही हानि होगी । विपरीत परिस्थिति में उक्तप्रकार से चिन्तन करने पर क्रोध आना कम हो जाता है।
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मान कषाय
आचार्यों ने क्रोध को खारा जहर कहा है जबकि मान को मीठा । अपने तुच्छ उपलब्धि पर दूसरों को अपने से हीन समझने का भाव मान कषाय कहलाता है। मान का अर्थ है सफलता की प्राप्ति पर मन में उभरता हुआ ज्वर, मैं-मैं का आग्रह, दूसरों में विद्यमान रहने वाले गुणों की अवहेलना करने वाली वृत्ति, अपने आप को परिपूर्ण मानने की मूढ़ता, सच्चाई से आँख मुँदने की आदत अथवा मन की मृदुता का विनाश करने वाली शक्ति | इस कषाय के कारण मनुष्य के मन में दूसरों के प्रति तिरस्कार की ******** **** ३४ *****
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