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करायजय-भावना * अथवा दूसरों को नीचा दिखाने की भावना उत्पन्न होती है। मान से ईर्ष्या.
द्वेष, कलह आदि बराइयाँ धीरे-धीरे बढ़ती रहती है, जिसके फल से दुःख भी बढ़ता जाता है।
कर्तव्य और अकर्तव्य के ज्ञान को विवेक कहते हैं। अहंकार विवेक को ठीक उसीतरह ग्रस लेता है, जैसे अस्ताचल सूर्य को ग्रस लेता है। *सूर्यास्त के उपरान्त अन्धकार के प्रसारित होने पर तमचर विचरण करते | A. मा करने वाले तोर पर अधिनारी जीत स्वच्छन्द होकर अपना कर्म * करते हैं तथा मनुष्य को समीचीन मार्ग नहीं सूझता। उसीतरह जब मनुष्य |
के विवेक को अहंकार ग्रसित कर लेता है, तब मनुष्य में मोहान्धकार बढ़ जाता है। मनुष्य की मति मारी जाती है। यही कारण है कि अहंकार मनुष्य * | को कुमार्गमामी बनाता है। अहंकार के उदय में मनुष्य ऐसे अनिर्वचनीय पाप |का बन्ध करता है, जिसके उदय के अधीन होकर चिरकाल तक नीच गति में होने वाले अपमानरूपी ज्वर के वेग को भोगना पड़ता है।
जैसे विषवल्लिका अपने समीपस्थ पौधों का जीवन नष्ट कर देती है, उसीप्रकार मान जीवन की समृद्धि, सौन्दर्य को देखने वाली दृष्टि, प्रेम के विस्तार की ललक, कुछ नवीन सीखने की पात्रता और सर्वजीवमैत्री
की भावना का गला घोट देती है। मान का वमन करने के लिए साधक को * प्रतिसमय अपने मन में विचार करना चाहिये कि -
१ . जो वैभव भौतिक सुख का कारण है, वह विनश्वर है। *२ . उच्च कुल, प्रतिष्ठा, बल. धन आदि की प्राप्ति का कारण पूर्वकृत Re शुभकर्म है। कर्मोदय सदैव एक-सा नहीं रहता।
३ - मेरा ज्ञान केवलज्ञानरूपी विशाल मेरु पर्वत के समक्ष एक तिल के बराबर भी नहीं है। ४. यदि मैं अनुकूल परिस्थितियों में मान करूंगा तो प्रतिकूल परिस्थिति | आने पर मुझे दुःख का अनुभव अधिक होगा।
धन तथा ज्ञानादिक का मद नष्ट करने का सरलतम उपाय यह है : * कि मनुष्य अपने से अधिक धनी या ज्ञानी को देखता रहे। सज्जनों की |
संगति अथवा पूज्य पुरुषों की विनय भी मानकषाय का हरण करती है। |
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