Book Title: Kashayjay Bhavna
Author(s): Kanakkirti Maharaj
Publisher: Anekant Shrut Prakashini Sanstha

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Page 38
________________ ************************* कषायजय-भावना नहीं होने देती है। कथय जात्मस्वभाव को करती है। इनके कारण से स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्ध होता है, जिससे संसार की वृद्धि ही होती है। कषायें आत्मा को पतित करने वाली होने से पापरूप हैं। अतः उनका संसर्ग करने वाला आत्मा नरकादि दुःखों को प्राप्त करता है । कषायें कल्मषों का वर्धन करती हैं। अर्थ कषाय से युक्त मनुष्य सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता है, सम्यग्ज्ञान को उज्वल नहीं बना पाता है, सम्यक्चारित्र का विनाश करता है तथा शोभनीय तप का भी त्याग कर देता है। कषायवान्नो लभते सुदर्शनं । कषायवान् ज्ञानमवैति नोज्ज्वलम् ।। कषायवाञ्चारुचरित्रमुष्णति । कषायवान् मुञ्चति शोभनं तपः || ३९ ।। - 20 भावार्थ- क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों से युक्त आत्मा को अपने स्वरूप का ध्यान नहीं रहता। मोक्ष और मोक्षमार्ग इन दोनों से दूरानुदूर जाते हुए 'जीव संसार के प्रचण्ड दुःखों को प्राप्त करता है। कषायों की ज्वालाओं में झुलसता हुआ आत्मा चारों आराधनाओं की आराधना नहीं कर पाता, क्योंकि आराधनाओं के लिए जीव को आत्मस्थ होना आवश्यक होता है और कषायों के सद्भाव में आत्मस्थता की प्राप्ति नहीं होती। आत्मस्थता के बिना सुख की प्राप्ति नहीं होती है। १. तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। २ - तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के जानने को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। ३. संसार के कारणों को नष्ट करने के लिए व्रतादि का अनुष्ठान करना सम्यक्चारित्र है। ४- इच्छा का निरोध करना तप है। ये चारों आराधनाएँ मोक्ष का कारण है। इन चारों आराधनाओं की प्राप्ति के लिए कषायों पर विजय करने का प्रयत्न करना चाहिये । ********** ३० ************

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