________________
**********************
कषायजय-भावना
छिद्रावलोकनपरं सततं परेषां । जिहाद्वयेन भयदानविधानदक्षम् ।। अन्तर्विपाक हृदयं कुटिलस्वभावं । माया करोति हि नरं सभुजङ्गचेष्टम् ||२३||
अर्थ माया मनुष्य को हमेशा दूसरों के दोषों को देखने में दो चतुर, जिहाओं के द्वारा अर्थात् चुगलखोरी की आदत के द्वारा दूसरों को भय देने वाला, कुटिल स्वभाव के कारण बदले की भावना से परिपूर्ण तथा सर्प के समान चेष्टा करने वाला बनाती है।
भावार्थ मायावी अपने को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न सदैव करता रहता है। अतः वह परदोषों को देखने में चतुर होता है। भागवी पुरुष सर्प की तरह चेष्टाओं का धारक होता है। संस्कृत भाषा में सर्प को * द्विजिह कहते हैं, क्योंकि उसके दो जिह्वाएँ होती है। मायावी भी द्विजिह होता है, क्योंकि वह सामने कुछ बोलता है तथा पीठपीछे कुछ बोलता है। मायाचारी अपनी चुगली करने की आदत से दूसरों को दुःख उत्पन्न करने वाला होता है। जैसे सर्प में बदले की भावना पायी जाती है, उसीप्रकार | मायाचारी व्यक्ति भी बदले की भावना से युक्त होता है।
धीरोऽपि चारुचरितोऽपि विचक्षणोऽपि । शीलालयोऽपि सततं विनयान्वितोऽपि ॥ बुद्धोऽपि वृद्धधनवानपि धीधनोऽपि । मायासखः सदसि याति लघुत्वमेव || २४||
अर्थ - धीर, सच्चरित्र, विचक्षण, शीलवान, विनय गुण से सम्पन्न, सजग, वृद्ध, धनवान और बुद्धिमान व्यक्ति भी यदि माया के साथ मैत्री करता है तो वह लघुता को प्राप्त करता है।
भावार्थ माया लघुता की जननी है। जो भी उसके साथ मित्रता करता है, ***********************
-