Book Title: Kashayjay Bhavna
Author(s): Kanakkirti Maharaj
Publisher: Anekant Shrut Prakashini Sanstha

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Page 25
________________ ************* कषायजय-भावना अर्थ - इस संसार में माया मनुष्य को जितना अधिक दुःख देती है तथा हानि पहुँचाती है, उतनी पीड़ा एवं हानि क्रोधित व्याघ्री से, शरभी से, राक्षसी से, शस्त्रों से, अग्निशिखा से, शाकिनी से, डाकिनी से तथा मस्तक पर गिरे हुए वज्र से नहीं होती है। भावार्थ- ग्रंथकर्ता भव्य जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि संसार * में दुःख को उत्पन्न करने वाले जितने भी निमित्त हैं, वे जीव का उतना अनर्थ नहीं करते जितना कि माया कषाय करती है। अतः दुःखमोचन के लिए माया का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । त्यक्ताशेषपरिग्रहा अपि सदा विज्ञातशास्त्रा अपि, शश्वद्द्द्वादशभेदतत्त्वतपसा संपीडिताना अपि । केचिद्भैरव गौरवाद्विहितया दुर्लक्षया मायया, मत्वा यान्ति कुदेव योनितवशां माया न किं दुःखदा ||२२|| अर्थ - अशेष परिग्रहों का त्यागी, सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता, सतत बारह प्रकार के तप से अपने शरीर को कष्ट देने वाला, अत्यन्त गौरव को प्राप्त करके भी माया के कारण कु-देव योनि में जाता है। माया मानव को कौनसा दुःख नहीं देती ? अर्थात् सभी प्रकार के दुःख देती है। **** भावार्थ जिन्होंने बाह्य और आभ्यन्तर चौबीस परिग्रहों का त्याग कर दिया है, सम्पूर्ण शास्त्रों को वाचना आदि पद्धति से अच्छीतरह जान लिया है, बाह्याभ्यन्तर तप का जो सदैव अनुष्ठान करते हैं, ऐसे महान मुनिराज भी यदि मायाचार करते हैं तो वे असमाधि से मरण करके देवदुर्गति को प्राप्त होते हैं। कन्दर्प, अभियोग्य, किल्विष, स्वमोह और असुर इन देवपर्यायों को प्राप्त होने को देवदुर्गति कहते हैं। जब एक विशिष्ट साधक को मायाचार का इतना भयंकर दुःख भोगना पड़ता है, तब सामान्य लोगों की दशा क्या होगी ? अतः माया कषाय को दूर से ही छोड़ देना चाहिये। ************[@]************* -

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