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कथायजन्य - भावना
गुजरता है। अतः ऐसे मनुष्य पर उसकी माता, पिता, मित्र, बन्धु, स्वजन और पुत्रादिक भी विश्वास नहीं करते हैं।
न मायया धर्म यशोऽर्थकामा |
न चेह पूजा न परत्र सिद्धिः । । न प्राप्यते किंचिदपीष्टमन्य
दतीहि माया सुखदा न कस्यचित् ||२७||
अर्थ- माया से धर्म, यश, अर्थ, काम, इस लोक में प्रतिष्ठा और परलोक में सिद्धि नहीं होती है। अन्य भी इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति भाया से नहीं होती। अतः माजा किसी को भी सुखकारी नहीं है,
भावार्थ माया सम्पूर्ण सद् गुणों का विनाश करती है। जैसे कुत्ते के पेट में घी नहीं टिकता है, उसीप्रकार मायाचारी के पास धर्म स्थिर नहीं रह | पाता है। जैसे सूखे वृक्ष पर पक्षीगण नहीं रहते हैं, उसीप्रकार जिसके पास धर्म नहीं, उसके पास यश और वैभव भी नहीं रह पाता। वैभव के बिना कामपुरुषार्थ कैसे सिद्ध हो सकता है ? मायाचारी को इस लोक में प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि प्रतिष्ठा सरल एवं सदाचारी मनुष्यों को मिलती है। परलोक में भी मायावी दुःखी ही रहता है। कोई भी इष्ट वस्तु माया के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती है। इसलिए माया कषाय किसी के लिए भी सुखकर नहीं है।
राजा धर्मरतः सतामभिमतः श्रीमान् विशुद्धाधाशयो, न्यायान्यायविचारणैकचतुरो निःशेषशास्त्रार्थवित् । व्यक्तं सानृत भाषया किल गतः पातालमूलं वसुः, संसारेऽस्ति किमत्र दुःखमतुलं यन्नाप्यते मायया । १२८||
अर्थ धर्म में रत, सज्जनों के द्वारा पूज्य, सम्पत्तिशाली, शुद्ध विचारों का
धारक, न्याय-अन्याय का विचार करने में चतुर, समस्त शास्त्रों के अर्थ को ************* 20***********
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