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क्रोध के वशीभूत हुआ क्रोधी मनुष्य तृण के समान अपने जीवितव्य | को भी छोड़ देता है। - भावार्थ - क्रोध क्षणिक पागलपन है। इसके आवेश में मनुष्य अपने विवेकशक्ति * को खो देता है। जब विवेक का साथ छूट जाता है, तब मनुष्य अकरणीय
कार्यों को भी करने लगता है। क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य अपने धन का विनाश कराता है। अपनी धर्मपत्नी को छोड़ देता है। जो कार्य आत्मा के लिए सुखकर होते है, उनका त्याग कर देता है। क्रोध की तीव्रता मानव को | इतना अन्धा बना देती है कि कभी-कभी उसके आवेश में मनुष्य आत्महत्या तक कर लेता है।
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भ्रूभङ्गभङ्गुरितभीमललाटपटुं. रक्तं विरूपमपि कञ्चन सर्वगात्रम् | प्रप्रस्खलद्वचनमुद्गतलोलदृष्टिं,
कोपः करोति मदिरेव जनं विचेष्टम् ||३|| अर्थ - क्रोध का उदय होने पर मनुष्य की भौहें टेढ़ी हो जाती हैं। ललाट * भयंकर हो जाता है। सम्पूर्ण शरीर लाल एवं कुरूप हो जाता है। वचन * * स्खलित होने लगते हैं और दृष्टि चंचल हो जाती है। क्रोध मनुष्य को मदिरा PM के समान निश्चेष्ट बना देता है। * भावार्थ - इस श्लोक में क्रोध को मदिरा के समान उन्मत्त बनाने वाला कहा * गया है, क्योंकि मदिरा का पान करने पर मनुष्य के मन, वचन और शरीर
पर अनेक प्रकार का विक्रत प्रभाव पड़ता है। मन विचार करने में असमर्थ * हो जाता है। वचन अस्थिर हो जाते हैं। ललाट लालवर्ण का हो जाता है, *
मुख भयंकर दिखने लगता है। शरीर में कम्पन उत्पन्न होने लगता है तथा * वह मनुष्य कुरूप-सा लगने लगता है। जो कार्य मनुष्य शराब पीने के * पश्चात करता है, वे ही कार्य क्रोध के आवेश में भी करता है। अतः क्रियाओं की अपेक्षा से मद्यपायी और क्रोधी व्यक्ति में कोई अन्तर नहीं है।
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