Book Title: Kashayjay Bhavna
Author(s): Kanakkirti Maharaj
Publisher: Anekant Shrut Prakashini Sanstha

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Page 13
________________ 来张荣米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米 津 津津*******※* ※※※※※※※*※*※*※*※※※※※※※※※※※※※※※※※ 米米米米米米米米米米米米米装 | कवायजय-मावना । चित्तेन चिन्तयति यद्यदचिन्तनीयं, वक्त्रेण जल्पति च यद्यदभाषणीयम् । तद्वाकरोति ननु यन करोति वैरी, मन्ये सदा भवति दुर्जनवत्स कोपः ।।७।। अर्थ - क्रोधी मनुष्य जिसका चिन्तन नहीं करना चाहिये, उसका भी चिन्तन करता है। अभाषणीय वचनों को मुख से बोलता है। जिस कार्य को | शत्रु भी नहीं करता है, उस कार्य को क्रोधी मनुष्य करता है। क्रोधी व्यक्ति * सदा दुष्ट के समान होता है। * भावार्थ - क्रोध के कारण मनुष्य अचिन्तनीय विषयों का चिन्तन करने | लगता है। जो वचन शिष्ट समाज में निषिद्ध समझ जाते हैं, ऐसे गाली | * आदि कुवचन बोलता है। क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य जिन काई को शत्रु भी नहीं करते, ऐसे आत्मा के अहितकर कार्यों को करता है। नीतिकार लिखते हैं. * क्रोधमूलं मनस्तापः, क्रोधः संसारवर्धनम् | धर्मक्षयंकरं क्रोधः, तस्मात्त्रोधं परित्यजेत् ।। * अर्थात् - क्रोध मन को संतप्त करता है। क्रोध संसार का वर्धन करता है। क्रोध धर्म का क्षय करता है। इसलिए क्रोध का परित्याग कर देना चाहिये। क्रोधी व्यक्ति की समस्त क्रियाएँ दुष्टों के समान होती है। जैसे दुष्ट व्यक्ति की क्रियाएँ स्व और पर का अहित करती हैं, उसीप्रकार क्रोधी tel की क्रियाएँ स्व और पर का अहित करने वाली होती हैं। ※*※*※*※*※*※*赤******来******* दानं न पूजां न तपो न शीलं, स्वाध्याय मौनं व्रतधारणं च । कोपाग्निसंतापितमानसस्य , परे गुणाः केऽपि न सन्ति तस्य ।।८।। 染米米米米米米米米米米米米聚米米米米米米米米米米米米

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