Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ बातोंका पूर्वोक्त प्ररूपणा और उत्कर्षण आदिके नियमोंको ध्यानमें रखकर विचार कर लेना चाहिए। मूलमें इसका विस्तारसे विचार किया ही है, इसलिए यहां विशेष नहीं लिखा जा रहा है। संक्रमणकी अपेक्षा झीन और अझीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका विचार करते हुए जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुए जितने निषेक हैं उनके कर्मपरमाणु संक्रमणसे झीनस्थितिवाले और शेष अभीनस्थितिवाले हैं। मात्र न्यूतन बन्धका बन्धावलि कालतक अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदि नहीं होता, इतनी विशेषता यहाँ और समझनी चाहिए। उदयकी अपेक्षा झीन और अझीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका विचार करते हुऐ जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि जिस कर्मने अपना फल दे लिया है वह उदयसे झीनस्थिति वाला है और शेष सब कम उदयसे अझीन स्थितिवाले हैं। .. स्वामित्व-यहाँ तक प्रकृति विशेषका पालम्बन लिए बिना सामान्यसे यह बतलाया गया है कि किस स्थितिमें स्थिति कितने कर्म परमाणु अपकर्षण आदिसे झीनस्थितिवाले और अझीन स्थितिवाले हैं। आगे मिथ्यात्व आदि प्रत्येक कर्मकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ऐसे चार भेद करके उनके स्वामित्वका विचार करके इस प्रकरणको समाप्त किया गया है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि अपकर्षण आदिकी अपेक्षा उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी गुणितकमांशिक जीव और अपकर्षण आदिकी अपेक्षा जघन्य झीनस्थितितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी क्षपितकौशिक जीव होता है। इसमें जहां विशेषता है उसका अलगसे निर्देश किया है। अल्पबहुत्व-इसमें मिथ्यात्व आदि प्रत्येक कर्मकी अपेक्षा अपकर्षण आदिसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। स्थितिगचूलिका पहले उत्कृष्टादिके भेदसे प्रदेशविभक्तिका विस्तारसे विचार कर आये हैं। साथ ही अपकर्षण आदिकी अपेक्षा झीन और अझीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका भी विचार कर आये हैं। किन्तु अभी तक उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदि कर्मपरमाणुओंका विचार नहीं किया गया है, इसलिए इसी विषयका विस्तारसे विचार करनेके लिए स्थितिग नामक चूलिका आई है। इसमें जिन अधिकारोंका आश्रय लेकर उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदिका विचार किया गया है वे अधिकार ये हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पचहुत्व। समुत्कीर्तना—इस अधिकारमें उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त, निषेकस्थितिप्राप्त, यथानिषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त कर्मपरमाणु हैं यह स्वीकार किया गया है। जो कर्मपरमाणु उदय समयमें अग्रस्थितिमें दृष्टिगोचर होते हैं वे उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्मपरमाणु है। यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिसे अग्रस्थिति ली गई है। एक समयप्रबद्धकी विविध स्थितियोंके जितने कर्मपरमाणु उदयके समय अग्रस्थितिमें दृष्टिगोचर होते हैं उन सबकी उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त संज्ञा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जो कर्मपरमाणु बन्धके समय जिस स्थितिमें निक्षिप्त होते हैं, अपकर्षण और उत्कर्षण होकर भी उदय कालमें वे यदि उसी स्थितिमें स्थित रहते हैं तो उनकी निषेकस्थितिप्राप्त संज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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