Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 16
________________ कर्म सिद्धान्त ४ १. कर्म व कर्म फल तीसरी बाधा यह भी है कि ईश्वर एक तथा शुद्ध माना गया है, साथ-साथ कोई हाथ-पैर वाला व्यक्ति न मानकर तत्त्व रूप माना गया है। एक तथा शुद्ध तत्त्व अनेक दृष्ट, अशुद्ध, चित्र-विचित्र तथा परस्पर विरोधी कार्य कैसे कर सकता है, जैसे कि एक ही समय में गमन व स्थिति, सुख व दुःख, ज्ञान व अज्ञान, राग व विराग आदि । निमित्त रूप से यदि कुछ कर सकता हो तो भी एक समय में इनमें से कोई एक ही कार्य कर सकता है, सकल कार्य नहीं । इत्यादि अनेकों बातें किसी चेतन-तत्त्व को नियन्ता मानने में बाधक हैं । यदि जनसाधारण का चित्त समाधान करने मात्र के लिये ऐसी स्थूल उक्ति है, तात्त्विक तथा सैद्धान्तिक नहीं है, तब कोई हानि नहीं है। अतः जीवों को सुख दुःख आदि रूप फलदान की कारणभूता कोई एक स्वाभाविक व्यवस्था होनी चाहिए, जो बिना किसी अन्य नियन्ता के स्वत: निर्बाध चलती रह सके। फिर उसको आप स्वभाव कहो, या काल कहो, या ईश्वर कहो या नियति कहो, या काल लब्धि कहो, या भवितव्य कहो, या दैव प्रारब्ध अथवा कर्म कहो । जैन दर्शनकार इसे 'कर्म' नाम देते हैं । ॐ I हे मन् ! तू इस दृष्ट जगत की ओर क्यों लखाता है ? क्या रखा है यहाँ ? सब कुछ 'अनित्य' है। अब है और अगले क्षण नहीं । क्या भरोसा है इसका ? किसी की भी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, किन्हीं सत्ताओं की उत्पन्नध्वंसी अवस्थायें ही तो हैं, सागर की तरंगोवत् । उनकी ये चंचल अवस्थायें भी तो विद्यमान नहीं हैं, इस समय तेरे समक्ष । तेरे समक्ष तो विद्यमान है मात्र तेरे असत् विकल्प, जिनको तू स्वयं बना-बनाकर मिटाये जा रहा है और स्वयं ही उनमें रुले जा रहा है । सम्भल, अपने घर में स्वयं ही आग न लगा, अपनी शक्ति का दुरुपयोग न कर अथवा इसे व्यर्थ न गँवा । महान् कार्य की सिद्धि करनी है तुझे इससे, शांति - प्राप्ति की ।

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