Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 35
________________ ५.बन्ध परिचय २३ कर्म सिद्धान्त विकार कहलाता है। अपने शुद्ध तथा स्वतन्त्र रूप को छोड़कर अन्य के आधीन हो जाना या अपने कार्य में अन्य की सहायता की अपेक्षा रखना ही विकार है। यह भाव अपने शुद्धभाव से च्युत हो कर किसी विजातीय प्रकार का हो जाता है, जैसे दूध के मिठास से दही का खटास हो जाना। . २. जीव-पुद्गल बन्ध–यहाँ पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि मूर्तीक परमाणु से मूर्तीक परमाणु का बन्धना तो ठीक, परन्तु अमूर्तीक जीव के साथ मूर्तीक पुद्गलका बन्ध कैसे सम्भव हो सकता है ? सो भाई यहाँ जिस अमूर्तीक पदार्थ की बात चलती है वह वास्तव में आकाशवत् सर्वथा अमूर्तीक नहीं है। जिस प्रकार घी नामक पदार्थ मूलत: दूध में उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार घी बन जाने के पश्चात् उसे पुन: दूध रूपेण परिणत करना सम्भव नहीं है । अथवा जिस प्रकार स्वर्ण नामक पदार्थ मूलत: पाषाण के रूप में उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार स्वर्ण बन जाने पर उसे पुन: किट्टी कि साथ मिलाया जाना असम्भव है । इसी प्रकार जीव नामक पदार्थ सदा ही मूलत: शरीर में उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार स्थूल व सूक्ष्म शरीरों से सम्बन्ध छूट जाने पर पुन: इसका शरीर के साथ बँध जाना असम्भव है । इसी पर से यह जाना जाता है कि घी तथा स्वर्ण की भाँति जीव मूलत: अमूर्तीक या शरीर-रहित नहीं बल्कि शरीर के साथ द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूपेण संश्लेष सम्बन्ध को प्राप्त होने के कारण वह अपने अमूर्तीक स्वभाव से च्युत हुआ उपलब्ध होता है, और इस कारण वह मूलत: अमूर्तीक न होकर कथंचित् मूर्तीक है। ऐसा स्वीकार कर लेने पर संसारावस्था में उसका शरीररूप मूर्तीक पदार्थ के साथ बन्ध हो जाना विरोध को प्राप्त नहीं होता। हाँ एक बार मुक्त हो जाने पर वह सर्वथा अमूर्तीक अवश्य हो जाता है, और तब शरीर के साथ उसके बन्ध का प्रश्न नहीं होता। ३. कथंचित् मूर्तिमत्त्व-फिर भी उसे मूर्तीक किस प्रकार कहा जा सकता है, ऐसी शंका योग्य नहीं, क्योंकि संश्लेष-सम्बन्ध रूप बन्ध की विचित्रता बताते हुए यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि बन्ध नाम उसी भाव-विशेष का है, जिसमें कि पदार्थ अपने स्वभाव से च्युत हो कर विजातीय रूप धारण कर लेता है। अत: संसारस्थ जीवन सर्वथा शुद्ध अमूर्तीक है और न सर्वथा शुद्ध मूर्तीक । इन दोनों के बीच की कुछ ऐसी अवस्था है, जिसमें कि उसके साथ मर्त पदार्थ का बन्ध हो सकना सम्भव है। "उनका शरीर-सापेक्ष द्रव्यात्मक रूप ही नहीं, भावात्मक रूप भी इस दिशा में अमूर्तीक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अमूर्तीक या निराकार ज्ञानभाव साक्षी रूपसे ज्ञाता द्रष्टा बना वस्तु को जानता मात्र है, उसके साथ अहंकार ममकार द्वारा बन्धन को प्राप्त नहीं होता । ज्ञाता ज्ञान ज्ञेयकी त्रिपुटी का अभाव होने से वह केवल ज्योति मात्र है। इससे विपरीत संसारस्थ जीव का ज्ञान-भाव मूर्तीक पदार्थों के साथ या ज्ञेयों के साथ अहंकार ममकार द्वार बंधा हआ है, जिसके कारण वह सदा हर्ष-विषाद से ग्रस्त रहता है। दूर पड़े हुए भी खिलौने को देखकर बालक प्रसन्न होता है और उसे हटा देने पर रोने लगता है।

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