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९. मोहनी प्रकृति
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कर्म सिद्धान्त
ओर नहीं झुक पाता । परन्तु सम्यग्दृष्टि या ज्ञानी उससे विपरीत प्रवृत्ति वाला होता है। उसकी मूल साधना न भोगों में प्रवृत्ति करना है और न उनको त्यागने के विकल्पों में उलझना है । बाह्य के विषय उसे न विधि रूप से इष्ट हैं और न निषेध रूप से । या यों कह लीजिए कि उनकी ओर से आँखे मूंदकर, मात्र समता युक्त प्रशान्ति में स्थित रहने के प्रति ही उसकी सर्व साधना या पुरुषार्थ है । भले ही पूर्व संस्कारों का वेग रुक न पाने से वह अभी पूर्णतया वैसा होने के लिये समर्थ न हो, पर उसका अन्तरंग झुकाव सदा इसी ओर रहता है। इसीलिये वह साधक कहलाता है और पूर्ण हो जाने पर वही सिद्ध नांम पाता है ।
इस प्रकार यद्यपि सम्यग्दृष्टि साधक दशा में पूर्ण वीतराग होने नहीं पाता, और भूमिकानुसार उसमें क्रोधादि विकार अथवा भोगादि की प्रवृत्ति भी पाई जाती है, परन्तु लक्ष्य ठीक हो जाने के कारण आगे या पीछे उसमें से उनका नाश हो जाना अवश्यम्भावी है, इसलिये विकार युक्त भी उसके चारित्र को उपचार से सम्यक् चारित्र कहते हैं । इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि की उपरोक्त वैराग्यपूर्ण प्रवृत्ति भी मिथ्या चारित्र नाम पाती है, क्योंकि लक्ष्य ठीक न होने के कारण वासना रूप से अव्यक्त दशा में स्थित उसके विकारों का नाश कभी भी सम्भव नहीं । चारित्र के विकार हैं राग द्वेष क्रोधादि जिनका कि कथन पहले किया जा चुका है। इस प्रकार श्रद्धा के कारण ही चारित्र मिथ्या तथा सम्यक् नाम पाता है, परन्तु विकारों की तरतमता की अपेक्षा उसे अनेकों भूमिकाओं में विभाजित किया जा सकता है, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं ।
४. चारित्र मोहनी —— चारित्र के उपरोक्त विकारों में निमित्त होने वाली कर्म-प्रकृति का नाम चारित्र - मोहनीय है, जो मूलतः दो प्रकार की है और उत्तर भेद करने पर ११ प्रकार, १३ प्रकार अथवा २५ प्रकार की है । वह ऐसे कि विकार दो प्रकार का है, कषाय तथा नोकषाय । जो आत्मा के स्वभाव को कषे या विकृत करे उसे कषाय कहते हैं और ईषत् कषाय को नोकषाय । कषाय चार हैं— क्रोध, मान, माया तथा लोभ । नोकषाय ९ हैं - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद । इन सबका कथन पहले किया जा चुका है। इस प्रकार वह १३ भेद रूप है। स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक वेद को एक सामान्य मैथुन भाव में गर्भित करने पर वह ११ प्रकार की है। सभी भेदों को राग तथा द्वेष इन दो में गर्भित कर देने पर वह दो प्रकार की है । पहले इन्हें राग द्वेष में गर्भित करके दिखाया जा चुका है । क्रोधादि चारों कषाय पृथक्-पृथक् चार-चार विकल्प - वाली हैं - अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन । इस प्रकार कषाय १६ और नो कषाय ९ दोनों मिलकर २५ भेद हो जाते हैं । सूक्ष्म रूप से भेद करने पर वे अनन्त रूप धारण कर लेते हैं । इन विकारों की निमित्तभूता 'चारित्र मोहनीय' नाम की कर्म-प्रकृति भी इतने ही प्रकार की जानना । उनका पृथक्-पृथक् स्वरूप नीचे दिया जाता है ।