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१२. उदय तथा सत्त्व
कर्म सिद्धान्त प्रति समय उदयागत निषेकों में वृद्धि का यह क्रम बराबर उस समय तक चलता रहेगा, जब तक कि प्रथम समय-प्रबद्ध का अन्तिम निषेक प्राप्त नहीं हो जाता। तत्पश्चात् एक निषेक की वृद्धि तो अवश्य हुई परन्तु साथ-साथ प्रथम समय प्रबद्ध का एक निषेक कम भी हो गया। इसी प्रकार आगे-आगे के प्रत्येक समयों में बराबर एक-एक निषेक की वृद्धि और द्वितीयादि समय-प्रबद्धों के एक-एक निषेक की हानि भी साथ-साथ होती गई। इसलिये प्रति समय उदयागत कुल द्रव्य का या निषेकों का प्रमाण उतना ही होता है जितना कि एक समय-प्रबद्ध का । उदयागत इस समय-प्रबद्ध प्रमाण द्रव्य में क्योंकि कई सागर पूर्व से लेकर आज तक के सभी समय-प्रबद्धों के एक-एक निषेक सम्मिलित हैं, इसलिये कहा जा सकता है कि प्रति समय एक समयप्रबद्ध बंधता है और एक ही समय-प्रबद्ध उदय में आता है । एक समय में बंधा द्रव्य अनेक समयों में उदय में आता है, और एक समय उदय आने वाला द्रव्य अनेक समयों में बंधा हुआ होता है । इस पर से सिद्ध हुआ कि वर्तमान एक समय में प्राप्त जो सुख-दुःख आदि रूप फल है, वह किसी एक समय में बंधे विवक्षित कर्म का नहीं कहा जा सकता, बल्कि गणनातीत काल में बंधे अनेक कर्मों का मिश्रित एक रस होता है। फिर भी उस एक रस में मुख्यता उसी निषेक की होती है जिसका अनुभाग सबसे अधिक होता है।
प्रत्येक जीव क्योंकि निरन्तर पुण्य या पाप का बन्ध करता रहता है, इसलिये प्रत्येक संसारी जीव को हीनाधिक रूप से कभी पण्य का उदय रहता है और कभी पाप का। जिसे आज पाप का उदय है उसे पाप का ही रहेगा, ऐसा कोई नियम नहीं। निषेक रचना में न जाने किस समय पुण्य के तीव्र अनुभाग वाला कोई निषेक उदय में आ जाए।
२. सत्त्व इस प्रकार प्रति समय एक समय-प्रबद्ध प्रमाण द्रव्य बन्धता है और इतना ही उदय में आता है, इसलिये सत्ता में सदा लगभग समान द्रव्य पाया जाता है। गणित द्वारा निकालने पर सत्ता का यह द्रव्य एक समय-प्रबद्ध से डयोढ़. गुणहानि गुणित जितना होता है, जिसका प्रमाण आगम से जानना चाहिये । सत्ता जीव को बाधक नहीं होती, क्योंकि उदय में आये बिना उसका कोई फल नहीं होता। वह उदय की प्रतीक्षा में केवल निश्चेष्ट पड़ी रहती है । अत: दुःख-सुख का कारण कर्म का उदय है सत्त्व नहीं। ...
३. बन्ध उदय सत्त्व सम्मेल-जीव तथा पुदगल दोनों का यह स्वभाव है कि एक दूसरे का योग्य निमित्त पाने पर वे दोनों एक दूसरे के साथ बंधकर कुछ विचित्र अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। वह अवस्था न जड़ होती है न चेतन बल्कि उसे चिदाभास कहना चाहिये। इसलिये जब-जब जीव हलन-चलन या गमनागमन रूप योग द्वारा तथा रागादि उपयोग द्वारा बाह्य जगत में अपने चेतन स्वरूप के अतिरिक्त