Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ कर्म सिद्धान्त ६४ १४. उपशम आदि मैल ऊपर उठकर पुन: जल को मलिन कर देता है, उसी प्रकार मूर्च्छा-काल बीत जाने पर वह कर्म फिर सचेष्ट हो उठता है अर्थात् उदय में आकर जीव के परिणामों पर अपना प्रभाव डालने लगता है । फलस्वरूप जीव के परिणाम पुनः पूर्ववत् मलिन हो जाते हैं । यहाँ केवल इतनी बात दर्शानी इष्ट है कि जितनी देर तक कर्म-मल दबा रहा अथवा उदय से विरत रहा उतनी देर तक जीव के परिणाम शत प्रतिशत निर्मल तथा शुद्ध रहे। इतने कालपर्यन्त उसमें न कोई विकल्प उदित हुआ और न कषाय । वह पूर्णतया समता अथवा शमता युक्त रहा। भले ही यह थोड़ा सा काल बीत जाने पर कर्म का उदय आ जाये और उसके प्रभाव से जीव में पुन: विकल्प तथा कषाय जागृत हो जाये, परन्तु इतने काल तक तो वह पूर्णतया निर्विकल्प तथा वीतराग है ही । यद्यपि यह काल अत्यन्त अल्प होता है तदपि जीवन में इसका जो महत्त्व है वह अल्प न होकर महान है। यह बात आगे दर्शाई जायेगी । कुछ देर के लिये शान्त हो जाने के कारण जीव के इस क्षणिक परिणाम को जीव का औपशमिक भाव कहा जाता है और निमित्तभूत कर्म-मल का क्षण भर को दबे रहना अथवा उदय में न आना कर्म का उपशम कहलाता है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, सत्ता में रहने वाला कर्म यद्यपि जीव को कुछ भी बाधा नहीं पहुँचाता, परन्तु उदय में आने पर वह अपना फल अवश्य देता है, जिसके कारण जीव की शक्ति का तिरोधान हो जाता है। यह तिरोधान दो प्रकार का होता है— आच्छादन रूप और विकार रूप ज्ञान दर्शन तथा दान लाभ आदि शक्तियों में आच्छादन होता है विकार नहीं, अर्थात् बादलों से आच्छादित सूर्य-प्रकाश की भाँति इनकी अभिव्यक्ति में कमी पड़ जाती है परन्तु विकृति नहीं होती । दूसरी और समता तथा शमता की शक्ति में विकार होता है आच्छादन नहीं, अर्थात् मदिरापान से मूर्च्छित हुई बुद्धि की भाँति इनकी अभिव्यक्ति में कमी कुछ भी नही पड़ती। शक्ति ज्यों कि त्यों रहते हुए वह विकृत हो जाती है। समता इष्टानिष्ट के द्वन्द्व रूप विषमता बन जाती है और शमता चित्त की चंचलता रूप श्रान्ति तथा क्रान्ति बन जाती है । विषमता को मोह कहते हैं और चित्त - श्रान्ति को क्षोभ । विषमता रूप मोह को उत्पन्न करने वाली कर्म प्रकृति दर्शन मोह कहलाती है और चित्त - श्रान्ति उत्पन्न करने वाली प्रकृति चारित्र मोह । उपशम इन दोनों प्रकृतियों का ही हो सकता है, ज्ञान आदि का आच्छादान करने वाली ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय प्रकृतिका नहीं। याद रहे कि अघातिया होने के कारण नाम गोत्र आदि शेष प्रकृतियों का कथन यहाँ गौण है । अनादि काल से जीवको आज तक एक क्षण के लिये भी कभी समता तथा शमता की प्राप्ति नहीं हो पाई। कदाचित् गुरु कृपा से तत्त्वदृष्टि जागृत हो जाने पर एक क्षणको उसका स्वाद आता है । वह क्षणिक स्वाद

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96