Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 86
________________ कर्म सिद्धान्त ७२ १५. कर्म - पुरुषार्थ समन्वय आगमन रोक दिया जाये अर्थात् संवर कर दिया जाये, और साथ-साथ तपश्चरण के द्वारा अविपाक निर्जरा प्रारम्भ हो जाये तो शीघ्र ही कर्मों की सत्ता समाप्त हो जाती है । इसलिये ज्ञाता- दृष्टा- भावरूप शुद्ध- परिणाम का और इसके साथ-साथ तपश्चरण का आश्रय यदि लिया जाये तो कर्मों की सन्तान से छूटना बिल्कुल सम्भव है । इसी में मोक्ष का यथार्थ पुरुषार्थ निहित है ३. तपका स्थान — कुछ लोग इस मार्ग में तपश्चरण का कोई स्थान नहीं समझते, परन्तु उनकी ऐसी बुद्धि युक्त नहीं है। तनिक सा विचार हमको यह बता देता है कि संवर और निर्जरा इन दोनों में से किसी एक के भी न होने पर कर्मों से मुक्त होना असम्भव है । संवर के अभाव में नवीन कर्मों के प्रवेश की धारा बराबर बनी रहती है, जिसके कारण कर्मों की निर्जरा होते हुए भी, सत्ता में कोई अन्तर पड़ने नहीं पाता । दूसरी ओर संवर के सद्भाव में भले ही नवीन कर्मों का प्रवेश होने न पावे, परन्तु निर्जरा के अभाव में पूर्वबद्ध सत्ता तो वहाँ रहेगी ही, जिसके उदय का भय बराबर बना रहेगा । उपशम भाव इसी कारण क्षण भर पश्चात् गिर जाता है कि वहाँ सत्ता में से कर्म का अभाव नहीं हो पाता । वर्तमान में भले कर्म का उदय न हो, परन्तु आगे जाकर सत्ता में बैठा हुआ कर्म अवश्य उदय में आ जाता है। शत्रु को बेहोश करना विशेष कार्यकारी नहीं, बल्कि उसका समूल नाश ही कार्यकारी है। अतः जिस किस प्रकार भी कर्मों की सत्ता को पूर्ण रूपेण धो देना ही श्रेयस्कर है। उपशम का फल इतना ही है कि उस अवसर पर विवेक जागृत हो जाता है और सत्ता वाले कर्मों की शक्ति काफी हल्की हो जाती है । यदि उसके पश्चात् भी उस विवेक का प्रयोग करता रहे तो धीरे धीरे साधक कर्मों का उन्मूलन अथवा क्षय करने के लिए समर्थ हो जाता है, परन्तु यदि प्रमादवश उस विवेक का साधना- क्षेत्र में प्रयोग न करे तो कुछ काल के पश्चात् वह विवेक भी उसी प्रकार प्रकृति के उदर में समा जाता है जिस प्रकार कि वह उपशम भाव । कर्मों का उन्मूलन करने के लिए द्विविध पुरुषार्थ की अर्थात् संवर तथा निर्जरा की आवश्यकता है । रागादिक विकारों को रोककर शुद्ध परिणाम कर लेना मात्र ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि इसका तो इतना ही फल है कि नवीन कर्म का बन्ध न हो; अर्थात् शुद्ध परिणाम से संवर तो हो जाता है पर निर्जरा नहीं । यद्यपि कुछ निर्जरा भी अवश्य होती है परन्तु वह यहाँ प्रधान नहीं है, क्योंकि वह एक प्रकार से स्वकाल प्राप्त या सविपाक निर्जरा ही होती है, और यदि कुछ अविपाक निर्जरा भी हो तो वह इतनी अल्प होती है कि उससे सारे जीवन में भी कर्मों का निःशेष सफाया हो जाना सम्भव नहीं है । सविपाक निर्जरा से प्रति समय एक निषेक में स्थित समय-प्रबद्ध प्रमाण ही

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