Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 87
________________ १५. कर्म-पुरुषार्थ समन्वय ७३ कर्म सिद्धान्त द्रव्य उदय में आकर झड़ता है, अधिक नहीं। यदि कदाचित् शुद्ध परिणाम के फलस्वरूप होने वाले अपकर्षण का भी ग्रहण कर लिया जाये, तब भी केवल असंख्यात ही निषेकों की निर्जरा प्राप्त होती है, अनन्त की नहीं। सारी आयु में भी इस प्रकार कुछ मात्र ही निषेकों की हानि हो सकेगी, सर्व निषेकों की नहीं। परन्तु वहाँ तो अनन्तानन्त निषेक बैठे हैं, जिनका विनाश तभी सम्भव है जब कि प्रति समय एक की बजाये अनन्त निषकों की निर्जरा की जाये और वह भी गुणाकार क्रम से बराबर बढ़ती चली जाये, जब तक कि सम्पूर्ण निषेक नि:शेष न हो जायें । इसे आगम में 'गुणश्रेणी निर्जरा' कहा गया है। दूसरी बात यह भी है कि कर्मों की सत्ता के सद्भाव में कोई भी जीव सारे जीवन पर्यन्त शुद्ध परिणामों में स्थित रह सके, यह सम्भव नहीं क्योंकि कुछ मिनटों तक ही कर्म का दबा रहना सम्भव है अधिक लम्बे काल तक नहीं। कुछ मिनटों पश्चात् सत्ता में पड़ा कर्म अवश्य उदय में आ जायेगा और तब शुद्ध परिणामों में टिके रहना असम्भव हो जायेगा। इस प्रकार पुन: नवीन कर्म-बन्ध का चक्र चल निकलेगा। अत: कोई ऐसा उपाय होना चाहिए कि अल्पमात्र काल में ही गणनातीत समयों पर बैठे निषेकों को युगपत् झाड़ा जा सके। उस उपाय का नाम ही तप है। इसीलिये संवर तथा निर्जरा का विभाजन करके शुद्ध परिणामों को मुख्यत: संवर का और तपश्चरण को मुख्यत: निर्जरा का कारण बताया गया है । सच्चे साधक को दोनों युगपत् वर्तते हैं, इसलिये उसे पृथक् से तप का विकल्प करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, परन्तु समझाने के लिये दो विभाग करने आवश्यक हैं। ४. तप का स्वरूप-जान बूझकर शारीरिक पीड़ाओं को आमन्त्रित करना अथवा स्वत: आये हुए उपसर्ग तथा परीषह को समता से सहन करना तपश्चरण का बाह्य लक्षण है । परन्तु केवल पीड़ाओं को सहन करना ही तपश्चरण हो सो बात नहीं है, इसका कुछ अन्तरंग लक्षण भी है, और वास्तव में वही प्रधान है । वह है दुःख तथा सुख में समता। ऊपर जो सहन करना कहा है वह वास्तव में समता ही है, विष की चूँट पीने सरीखा कुछ नहीं है। अनुकूल वातावरण में रहकर समता या ज्ञाता दृष्टापने का पूरा अभ्यास कर लेने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि पीड़ाओं के आने पर उसकी वह समता स्थिर रह सकेगी या नहीं। यदि इतनी शक्ति अभी जाग्रत नहीं हुई है, और केवल साम्यता की प्रान्ति ही बनी हुई है तो साधना में बहुत बड़ी कमी है। भ्रान्ति के निवारणार्थ परीक्षा आवश्यक है। जीव वस्तुत: चेतन है तथा अमूर्तिक है। जड़ पदार्थों से तथा शरीर की अवस्थाओं से पृथक् व अस्पृष्ट रहते हुए उन्हें साक्षी रूप से जानना मात्र उसका काम

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