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१६. कर्मोन्मूलन
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कर्म सिद्धान्त क्षयोपशम-लब्धि को प्राप्त किसी एक प्राणी के कदाचित् चारित्रमोह प्रकृति का और भी मन्द उदय आने पर तथा अन्य पुण्य प्रकृतियों का स्वकाल-प्राप्त उदय आने पर उसके परिणाम स्वत: कुछ निर्मल तथा विशुद्ध हो जाते हैं, अर्थात् उसमें भोगासक्ति कुछ कम हो जाती है और दया दान सेवा आदि के परिणाम जागृत हो जाते हैं । यही दूसरी 'विशुद्धि लब्धि' का स्वरूप है । यह भी बिना किसी पुरुषार्थ के कदाचित् स्वत: प्राप्त हो जाती है। यद्यपि इसकी प्राप्ति में किसी पुरुषार्थ-विशेष की अपेक्षा नहीं पड़ती, परन्तु इसको पाकर व्यक्ति सत्पुरुषार्थ जागृत कर सकता है। चाहे तो इस अवसर को सत्संगति आदि में लगावे और चाहे लौकिक दया दान आदि में। प्राय: ऐसे जीव लौकिक सेवा आदि में ही इसकी सार्थकता मानते हैं, और सत्संगति से वञ्चित रह जाने के कारण आगे नहीं बढ़ पाते। इतना अवश्य है कि किसी भी विवेकवान् व्यक्ति के लिए यह एक दिव्य उपहार है क्योंकि विशुद्ध परिणामों के बिना मोक्ष मार्ग का पुरुषार्थ सम्भव नहीं।
विवेकवान् सत्पुरुषार्थी के लिए यह अवसर बहुत महत्त्वशाली है, क्योंकि क्षयोपशम-लब्धि से जहाँ उसे बुद्धि का विकास करने के लिए अवसर प्राप्त होता है वहाँ ही विशुद्धि लब्धि से हृदय को शुद्ध करने का अवसर मिलता है । आत्मकल्याण की दिशा में प्रयुक्त की गई यह शक्ति कठोरता को मृदुता में परिवर्तित कर देती है। क्षयोपशम लब्धि के सदुपयोग द्वारा यद्यपि बुद्धि का विकास होता है तदपि उसके हेत से -- प्राप्त ज्ञानाभिवृद्धि के साथ-साथ ज्ञानाभिमान से व्यक्ति बच नहीं सकता। इसलिए बुद्धि के क्षेत्र में प्रगति करके भी वह हृदय के क्षेत्र में पिछड़ जाता है । ज्ञानाभिमान के कारण उसका हृदय इतना कठोर हो जाता है कि उसे अपने से अधिक ज्ञानवान् अथवा गुणवान् इस जगत में अन्य कोई भी दिखाई नहीं देता। वह अपने को सर्वज्ञ समझ बैठता है। अपना सत्कार कराते हुए भी दूसरे का सत्कार करना भूल जाता है । सबको तुच्छ समझता है और उनका उपहास तथा तिरस्कार करने में ही अपने ज्ञान का सार्थक्य समझ बैठता है । बुद्धि के कपाट खुल कर भी उसके हृदय के कपाट बन्द हो जाते हैं । यद्यपि दूसरों को उपदेश देता है परन्तु उसके अपने जीवन में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता।
विशुद्धि-लब्धि उसे जीवन-शोधन का अवसर प्रदान करती है। यदि लौकिक दया दान आदि तक ही सीमित न रखकर इसे पारमार्थिक क्षेत्र में भी प्रयुक्त करे तो इसके द्वारा उसके हृदय में विनय नाम का महान् गुण प्रकट हो जाता है। आत्म-गुण
और पर-दोष दर्शन की बजाय अब उसे आत्म-दोष और पर-गुण दर्शन होने लगता है। क्षयोपशम-लब्धि के द्वारा जहाँ उसे तात्त्विक समाधान हो जाने के कारण निःशंकित गुण प्राप्त होता है वहाँ ही विशुद्धि-लब्धि के द्वारा उसे उपगूहन, उपवृंहण, वात्सल्य तथा स्थितिकरण गुण प्राप्त होते हैं। इन सब गुणों के कारण वह गुरु बनने की बजाये शिष्य बनना सीख जाता है । शिष्य बनते ही गुरु की उपलब्धि उसके लिए सहज हो जाती है।