Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 62
________________ कर्म सिद्धान्त ११. कर्म-बन्ध ६. प्रदेशात्र-बन्ध के अन्तर्गत दो विकल्प हैं, कर्म प्रदेशों का आकर इकट्ठा होना और बन्धना । इकट्ठा होने को 'आस्रव' कहते हैं और उनके संश्लेष सम्बन्ध को 'बन्ध' । यहाँ आस्रव केवल प्रदेश परिस्पन्दन या गमनागमन स्वरूप है और बन्ध स्निग्ध रुक्ष भावस्वरूप। इसलिये जीव का प्रदेश-परिस्पन्दन-रूप योग आस्रव में कारण है, जबकि उसका भावात्मक उपयोग उन आगत प्रदेशों में यथायोग्य स्निग्धादि गुणों को प्रकट करके उन्हें परस्पर बाँधने में कारण है। उन स्निग्धादि गुणों की तरतमता तथा चित्रता-विचित्रता ही उस कर्म की स्थिति तथा अनुभाग है। इस कथन का यह सारांश जानना कि नित्य चंचल योग के कारण अनन्तों कार्मण वर्गणायें प्रति समय आस्रव द्वारा विस्रसोपचय से पृथक् होकर जीव प्रदेशों के साथ संयोग को प्राप्त होती रहती हैं, पर उसके साथ बँधने नहीं पातीं। यदि साथ-साथ रागादि रूप उपयोग का निमित्त भी मिल जाये तो वे उसके साथ बन्ध को भी प्राप्त हो जाती हैं। इस पर से यह बात सिद्ध हो जाती है कि विहार तथा उपदेशादि क्रियायें करते हुये भी वीतरागी तथा जीवन्मुक्त सकल-परमात्मा को अर्थात् अर्हन्त भगवान को उन अपने योगों के कारण कर्मों का आस्रव तो अवश्य होता है, परन्तु रागादि रूप उपयोग के अभाव के कारण वे कर्म वहाँ बन्ध को प्राप्त नहीं होते, बल्कि अनन्तरवर्ती उत्तर समय में ही सूखे कपड़े पर पड़ी धूलवत् झड़ जाते हैं। दूसरी ओर संसारी जीवों में योग तथा विकृत उपयोग दोनों उपलब्ध होते हैं इसलिये वहाँ आस्रव तथा उसके साथ ही बंध भी हो जाता है, अर्थात् उसमें कुछ काल तक वहाँ टिके रहने की शक्ति भी प्रगट हो जाती है। या यों कह लीजिये कि वह स्थितियुक्त हो जाता है। जिस प्रकार कि चिकने कपड़े पर पड़ी हुई धूल उस पर इस प्रकार बैठ जाती है कि झाड़ने पर भी नहीं झड़ती, इसी प्रकार उस कर्म का संस्कार जीव के चित्त पर इस प्रकार अंकित होकर बैठ जाता है कि हजार प्रयत्न करने पर भी दूर नहीं होता। . वीतरागियों के इस बन्ध-विहीन आस्रव को 'ईर्यापथ-आस्रव' कहते हैं और संसारी जीवों के बन्ध-युक्त आस्रव को 'साम्परायिक-आस्रव'; क्योंकि पहले के वे कर्म तो केवल आकर चले ही जाते हैं और दूसरे के कर्म संसार- परम्परा का निर्माण करते हैं । ईर्यापथ में भी स्थिति अवश्य होती है, सर्वथा न हो ऐसा होना संभव नहीं; क्योंकि जैसा कि पहले बताया जा चुका है बिना स्थिति के कर्म होता ही नहीं । अन्तर केवल इतना है कि यहाँ स्थिति केवल एक समय मात्र होती है, और साम्परायिक में एकाधिक समय प्रमाण । एक समय मात्र स्थिति को बन्ध संज्ञा प्राप्त नहीं होती, क्योंकि उस समय में तो वह आया ही है, अगले समय टिके तो बन्ध कहलाये। आने का नहीं, टिकने का नाम बन्ध है। अगले समय झड़ ही जाता है, इसलिये बन्ध कैसे कहें।

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