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११. कर्म-बन्ध
. कर्म सिद्धान्त ७. अनुभाग-उद्भव–एक समय में बन्ध को प्राप्त हुये कर्म-स्कन्ध में अनंतों कार्मण वर्गणायें होती हैं। इन सबके समूह का नाम एक समय-प्रबद्ध है। सामान्य रीति से एक होते हुये भी जीव के योग तथा उपयोग की विचित्रता के अनुसार यह द्रव्य आठ प्रकृतियों में विभक्त हो जाता है। कितना द्रव्य किस प्रकृति के हिस्से में आता है, इसका कुछ नियमित क्रम है, जो आगम से जान लेना चाहिये । प्रकृति होती है उस अनुभाग-विशेष की जाति । अनुभाग का कथन नीचे किया जा रहा है । इतना केवल प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध का कथन हुआ। अब आगे अनुभाग तथा स्थिति बन्ध का कथन किया जाता है। ... जीवों के तत्-तत् समय सम्बन्धी रागादि भावों के अनुसार उस कर्म-स्कन्ध में अनुभाग या रस (फल दान शक्ति) पड़ जाता है। तीव्र परिणाम से तीव्र रस पड़ता है और मन्द से मन्द । तीव्र रस का फल जीव में अधिक विकार अथवा अधिक सुखदुःख उत्पन्न करना है और मन्द रस का फल हीन विकार हीन सुख-दुःख प्रदान करना है। यही अनुभाग बन्ध कहलाता है।
जिस जाति का अनुभाग होता है उस जाति की ही प्रकृति कहलाती है। यद्यपि एक ही परिणाम आठों प्रकृतियों के अनुभागों में कारण है परन्तु जिस परिणाम का झुकाव जिस तरफ प्रधान होता है. उसी के अनुरूप कर्म में विशेष अनुभाग पड़ता है। यद्यपि दूसरी प्रकृतियों में भी हीन या अधिक कुछ न कुछ अनुभाग अवश्य पड़ता है परन्तु कथन करने में उस एक विशेष अनुभाग वाली प्रकृति की ही मुख्यता रहती है। इस प्रकार जीव के परिणामों पर से हम जान सकते हैं कि किस समय कौन सी प्रकृति बंधी है और उसमें कितना अनुभाग पड़ा है।
जीव के परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-शुभ, अशुभ तथा शुद्ध । दया दान पूजा संयम आदि के परिणाम शुभ हैं, हिंसा आदि के अशुभ और समता तथा शमता युक्त परिणाम शुद्ध कहलाते हैं । समस्त संसारी जीवों में हीन या अधिक रूप से शुभ तथा अशुभ परिणाम ही पाये जाते हैं शुद्ध नहीं। परन्तु किन्हीं साधकों में कदाचित ध्यानादि के समय कुछ शुद्ध भी पाये जाते हैं। सम्यग्दृष्टियों में हर समय शुद्ध परिणाम का कुंछ-न-कुछ अंश अवश्य पाया जाता है । यहाँ शुभ परिणामों से शुभ या पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है और अशुभ से पाप प्रकृतियों का। शुद्ध परिणाम बन्ध के कारण नहीं हैं, बल्कि पूर्व बन्धको काटने के कारण हैं। यद्यपि मुख्यता से परिणाम को शुभ या अशुभ आदि कहा जाता है, तदपि पूर्ण शुद्ध के अतिरिक्त कोई भी परिणाम अकेला नहीं होता । लौकिक हो या साधक किसी भी संसारी जीव में केवल शुभ या केवल अशुभ अथवा केवल शुद्ध परिणाम कभी नहीं होता। इनका मिश्रित रूप ही सर्वत्र उपलब्ध होता है। लौकिक व्यक्ति में शुभ अशुभ का और साधक में तीनों का मिश्रण होता है। जिस भाव का अंश प्रभूत या अधिक होता है वह सारा परिणाम वैसा ही कहा जाता है । मिश्रित का कथन जटिल होने से सम्भव नहीं है,