Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 53
________________ ९. मोहनीय प्रकृति कर्म सिद्धान्त अप्रत्याख्यानावरण के टल जाने पर उस साधक का वैराग्य कुछ व्यक्त होता है और वह आंशिक त्याग को अपना लेता है, परन्तु पूर्ण त्याग कर नहीं पाता। उसकी वासना का काल घटकर अब १५ दिन मात्र रह जाता है। पूर्ण त्याग को आवृत किये रखने के कारण इसकी निमित्तभूता प्रकृति को 'प्रत्याख्यानावरण' कहा जाता है। इसका भी अभाव हो जाने पर साधक की वासनाशक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाती है। अब इसका वैराग्य इतना वृद्धिंगत हो जाता है कि वह घरबार छोड़कर साधुका रूप धारण कर लेता है । वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र रह गया है, जिसके कारण कोई भी कषाय बाहर में प्रकट होने नहीं पाती। भीतर में कदाचित् स्फुरित होती प्रतीत भी होती है तो वह तुरन्त उसे समाहित करके शान्त हो जाता है । यद्यपि बाहर का पूर्ण त्याग हो गया है, परन्तु अन्तरंग में अब भी संकल्प-विकल्प जागृत हो होकर उसकी समता में विघ्न डालते रहते हैं। स्वरूप के इस अन्तरंग ज्वलन में निमित्त पड़ने वाली कर्म-प्रकृति 'संज्वलन' कहलाती है । इसके टल जाने पर वासना पूर्ण क्षय हो जाती है। तब सूक्ष्म संकल्प विकल्पों का भी अभाव हो जाता है । वासनाकाल नि:शेष हो जाता है। यथाख्यात समता शमता प्रकट हो जाने के कारण अब वह साधक नहीं सिद्ध हो जाता है। ५.गुण विकास क्रम उपरोक्त प्रकार साधना-पथ पर अग्रसर कोई जीव क्रम पूर्वक प्रथम तो मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कांय को हटाकर सम्यक्त्व प्राप्त करता है। पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण को मिटाकर कुछ व्रत धारण कर श्रावक संज्ञा पाता है। फिर प्रत्याख्यानावरण को भी समाप्त कर सकल व्रती साधु नाम पाता है । इसके पश्चात् निश्चल तथा शुद्ध समाधि में लीन होकर क्रम से पहले नोकषाय रूप भावों का और पीछे संज्वलन कषायों का भी उच्छेद कर डालता है। अब वह सकल विमल नीरंग तथा निस्तरंग समता अथवा शमता को प्राप्त कर जीवन्मुक्त हो जाता है। इस प्रकार सकल मोहनीय का नाश होते ही शेष तीन घातिया प्रकृतियाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय भी बिना परिश्रम स्वत: तत्क्षण विलीन हो जाती हैं, क्योंकि उनकी आधारशिला यह मोहनीय ही थी। बाधक कारणों के अभाव में उसकी ज्ञान दर्शन आदि चेतन शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। अब वह सर्वज्ञ होकर अर्हन्त संज्ञा को प्राप्त करता है । यद्यपि आयु शेष रहती है, शरीर अवस्थित रहता है और कुछ बाहर के इष्ट-अनिष्ट संयोग भी, तदपि मोहनीय के अभाव में वे सब उसको स्पर्श नहीं करते, अर्थात् उसकी समता तथा शमता अक्षुण्ण बनी रहती है । वह अब जीवन्मुक्त है । अत्यन्त पूज्य होने के कारण जैन दर्शन में इस अवस्था को • अर्हन्त कहा जाता है। इस अवस्था में उपयोग यद्यपि पूर्ण शुद्ध हो जाता है तदपि अघातिया कर्म जीवित रहने के कारण योग अभी शेष रहता है, जिसके फलस्वरूप वह अपने उपदेशों के द्वारा जग-जीवों का कल्याण करता रहता है।

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