Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 55
________________ १०. स्थित्यादि बन्ध १. स्थिति, २. बन्ध उदय सत्त्व; ३. अनुभाग; ४. प्रदेश। षष्ठ अधिकार में द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव के अनुरूप कर्मों के बन्धकी चार शक्तियाँ बताई गई थीं—प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध । इनमें से प्रकृति-बन्धका अर्थात् उसकी आठ मूल प्रकृतियों का और मोहनीय की २८ अवान्तर प्रकृतियों का कथन कर दिया गया। अब क्रम से स्थिति आदि का भी कथन किया जाता है। १. स्थिति यह बात पहले बताई जा चुकी है कि स्थिति का अर्थ आयु या अवस्थान-काल है। जीव के रागादि भाव-कर्मों के निमित्त से कार्मण वर्गणाओं का अष्ट प्रकृतियों के रूप में परिणमन हो जाने के पश्चात् अर्थात् प्रकृति बन्ध हो जाने के पश्चात् जितने काल पर्यन्त वह जीव प्रदेशों के साथ बद्ध उसी प्रकृति के रूप में टिका रहे, उतना काल उस बन्ध की 'स्थिति' कहलाती है। जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त यह अनेकों भेद वाली हो जाती है । सर्व जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र अर्थात् कुछ मिनटों की है और उत्कृष्ट ७० कोड़ा-कोडी सागर की । 'सागर' अलौकिक गणना का एक विशेष मान है जो संख्यातीत सहस्राब्दियों प्रमाण ही नहीं बल्कि गणनातीत लाइट ईयर्स (Light years) प्रमाण होता है। करोड़ को करोड़ से गुणा करने पर जो लब्ध आए वह एक कोड़ा कोड़ी का प्रमाण है। प्रत्येक प्रकृतिकी जघन्य उत्कृष्ट अथवा मध्यम कुछ न कुछ स्थिति अवश्य होती है । दर्शन-मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा कोड़ी सागर है। आठों कर्मों की स्थिति में यह सर्वोत्कृष्ट है। चारित्र-मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ा-कोड़ी सागर है, दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय, वेदनीय तथा अन्तराय की ३० कोड़ा-कोड़ी सागर, नाम तथा गोत्रकी २० कोड़ा-कोड़ी सागर और आयु की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर प्रमाण है । जघन्य स्थिति सभी प्रकृतियों की कुछ अन्तर्मुहूर्त अर्थात् कुछ क्षण प्रमाण मानी गई है। संसार में रोके रखने के कारण स्थिति-बन्ध जीव को विघ्नकारी है। २. बन्ध उदय सत्त्व-जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त उपरोक्त स्थितियों में से जितनी कुछ स्थिति लेकर कोई कर्म-विशेष बन्धता है उतने काल तक वह यों ही बेकार सा पड़ा रहता है, अर्थात् फल प्रदान नहीं करता। इसे कर्म की 'सत्ता' कहते हैं। परन्तु अपने-अपने स्थिति-प्रमाण काल बीत जाने पर वह फलोन्मुख हो जाता है अर्थात् जीव के भावों पर अपना प्रभाव डालने की सामर्थ्य से युक्त हो जाता है। यही उसका परिपाक या 'उदय' काल कहलाता है। स्थिति काल का अन्तिम क्षण ही वास्तव में उदय काल है, क्येंकि उस क्षण में फल देकर तदनन्तर उत्तरवर्ती क्षण में ही वह

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