Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 52
________________ कर्म सिद्धान्त ९. मोहनीय प्रकृति I अनन्त संसार का अनुबन्ध करने वाले भाव अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं । निज चैतन्य तत्त्व के अतिरिक्त अन्य जड़ तथा चेतन पदार्थों में स्वामित्व तथा कर्ता-भोक्ता भाव की दृढ़ ग्रन्थि उसका स्वरूप है । यह भाव मिथ्यात्व का सहोदर है । जब तक श्रद्धा मिथ्या है तब तक चारित्र या प्रवृत्ति भी इसी प्रकार की होती है । मिथ्यात्व भाव के जल जाने पर उसके साथ ही यह भी जल जाता है। इसके जल जाने पर सम्यग्दृष्टि को यद्यपि उपरोक्त प्रकार विकारी प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं, पर उसके प्रति निन्दन गर्हण का विशेष भाव अन्तरंग में वर्तने लगता है जो मिथ्यादृष्टि को नहीं होता । दृढ वासना ही अनन्त संसार या अनन्त अनुबन्ध है, जिसके कारण भोग या विकल्परत अपनी विकारी प्रवृत्ति के प्रति मिथ्यादृष्टि को निन्दन या धिक्कार नहीं वर्तता, और उसका अभाव हो जाने के कारण सम्यग्दृष्टि को वह नित्य वर्तता है । तीव्र कषाय का नाम अनन्तानुबन्धी नहीं है बल्कि उस सूक्ष्म वासना का नाम है जो हजार बार समझाने पर भी नम्र नहीं होती है । इस भाव से शून्य सम्यग्दृष्टि में भी कदाचित् तीव्र कषाय देखी जाती है और इस भाव से युक्त मिध्यादृष्टि में कदाचित् अत्यन्त मन्द कषाय पाई जानी सम्भव है । कषाय की तीव्रता - मन्दता के भाव को आगम में ‘लेश्या' कहा गया है । अनन्तानुबन्धी आदि के चार भेद वासना काल को दृष्टि में लेकर किये गये हैं। बाहर में कषायरूप कार्य हो या न हो वासना अन्दर में बनी रहती है, कुछ अत्यन्त दृढ़ होती है और कुछ अल्प काल स्थायी । ऐसी दृढ़ वासना जो अनन्त काल में भी न टूट पावे अनन्तानुबन्धी कहलाती है । यही कारण है कि एक बार उत्पन्न हुई भोगासक्ति या क्रोधादि कषाय मिथ्यादृष्टि को भव-भवान्तरों तक बनी रहती है । भोगादि का त्याग कर देने पर भी उसकी वासना का त्याग होने नहीं पाता । इसकी निमित्तभूता कर्म प्रकृति अनन्तानुबन्धी है । ४० इस वासना का क्षय एकदम नहीं हो जाता बल्कि क्रम से होता हैं। वासना - क्षय का फल द्विरूप है— एक वासना काल में कमी पड़ने रूप और दूसरा कषायों की तीव्रता में कमी पड़ने रूप । सम्यक्त्व प्रकट हो जाने पर अथवा अनन्तानुबन्धी के टल जाने पर वासना काल अनन्त काल से घटकर छः महीने मात्र शेष रह जाता है। किसी विषय-विशेष के प्रति एक बार आसक्ति या द्वेष हो जाने पर वह आसक्ति या द्वेष अव्यक्त दशा में भी अधिक से अधिक छः महीने टिकता है, इससे अधिक नहीं । दूसरी तरफ यद्यपि भोगों का त्याग नहीं होता परन्तु अपनी प्रवृत्ति के प्रति निन्दन गर्हण निरन्तर बना रहता है । इतना ही उसमें वैराग्य या चारित्र प्रकट हुआ है । भोगों का त्याग या प्रत्याख्यान किंचित् मात्र भी न हो सकने के कारण सम्यग्दृष्टि के इस चारित्र को 'अप्रत्याख्यान' कहते हैं । इसकी कारणभूता प्रकृति ईषत् मात्र भी प्रत्याख्यान को या त्याग को आवृत किये रखने के कारण 'अप्रत्याख्यानावरण' कहलाती है ।

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