Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 50
________________ 1 कर्म सिद्धान्त ३८ ९. मोहनीय प्रकृति ३. चारित्र –—–— यद्यपि व्यवहार भूमि पर अशुभ विषयों का त्याग और शुभ विषयों का ग्रहण अथवा व्रत, त्याग, तप आदि चारित्र के नाम से प्रसिद्ध हैं, तथापि ये वास्तव में चारित्र नहीं, उसे प्राप्त करने के साधन हैं । चारित्र हमारा स्वभाव है जिसका स्वरूप समता है । बाह्य विषयों में मैं मेरा, तू तेरा, अथवा इष्ट-अनिष्ट, ग्राह्य- त्याज्य आदि के विकल्प करना मोह है । यही परमार्थतः मिथ्या दर्शन है जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है । इसके कारण से अन्तरंग में निरन्तर विकल्पों तथा कषायों की भगदड़ मची रहती है । अन्तरंग की यह भगदड़ 'क्षोभ' शब्द का वाच्य है, और स्वभाव से विपरीत होने के कारण यही मिथ्या चारित्र है । यही चित्तगत अशान्ति है मोह के अभाव से समता उदित होती है। जिसमें न कुछ मेरा है न तेरा, न इष्ट न अनिष्ट, न ग्राह्य न त्याज्य । इसी प्रकार क्षोभ के अभाव से शमता प्रकट होती है चित्त की विश्रान्ति उसका स्वरूप है। मोह तथा क्षोभ से विहीन समता तथा शमता युक्त परिणाम ही परमार्थतः सम्यक् चारित्र शब्द का वाच्य है, जिसे शास्त्रों में वीतरागता, शुद्धोपयोग, माध्यस्थता, ज्ञाता द्रष्टा भाव आदि संज्ञाओं से विभूषित किया जाता है। I "चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ।” इस स्थिति को हस्तगत करने के लिए वासनाओं का त्याग, और वासनाओं का त्याग करने के लिए बाह्य विषयों का त्याग करना यद्यपि साधक की आद्य भूमिका में अत्यन्त आवश्यक होता है; परन्तु यह चारित्र नहीं चारित्र का साधन है, जिस प्रकार औषधि स्वास्थ्य नहीं है, स्वास्थ्य - प्राप्ति का साधन है। जिस प्रकार स्वास्थ्य प्राप्त हो जाने पर औषधि का त्याग हो जाता है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों समता तथा शमता में प्रवेश होता जाता है त्यों-त्यों बाह्य विषयों का त्याग भी ढीला पड़ता जाता है, यहाँ तक कि समता की पूर्णता हो जाने पर उस त्याग का भी त्याग हो जाता है। शास्त्रों में इस त्याग के त्याग को अमृत कुम्भ कहा गया है । "अप्पडिकम्मणं अप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदा गरहा, सोही अमय कुंभो ॥' इस रहस्य का भान न होने के कारण ही आज का साधक ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों बाह्य त्याग को ढीला करने की बजाय अधिक-अधिक कठोर करता जाता है। यह सब मोहका ही कोई अचिन्त्य माहात्म्य है । यही कारण है कि मिथ्या श्रद्धा वाले व्यक्ति की सभी लौकिक अथवा धार्मिक प्रवृत्तियाँ विकल्पों तथा कषायों से युक्त होने के कारण मिथ्या चारित्र है और सम्यक् श्रद्धा वाले व्यक्ति की वही प्रवृत्तियाँ समता तथा शमता से युक्त होने के कारण सम्यक् चारित्र है । मिथ्यात्वी या अज्ञानी व्यक्ति अपनी उपरोक्त मिथ्या श्रद्धा के कारण कभी भी उपरोक्त प्रवृत्ति या त्याग के विकल्पों से पीछे हटना नहीं चाहता, उसे ही इष्टं समझता है और अन्तरंग समता की 1

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