Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 45
________________ ८.प्रकृति बन्ध १. विस्त्रसोपचय, २. कर्म प्रकृति; ३. घाति-अधाति विभाग; । ४. अष्ट प्रकृति विभाग। १. विस्त्रसोपचय-'पदगल-परिचय' वाले अधिकार में बताया गया है कि स्निग्ध-रूक्ष भाव के कारण परमाणु परस्पर में बन्ध कर पाँच वर्गणाओं का रूप धारण कर लेते हैं । ये सूक्ष्म वर्गणायें लोकाकाश में एक-एक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त स्थित हैं। जिस क्षेत्र में अथवा जिन प्रदेशों पर इस समय आप स्थित हैं उन पर भी वे पाँचों हैं और यहाँ से उठकर अन्यत्र चले जायेंगे वहाँ भी ये अवश्य हैं। तात्पर्य यह है कि आप कहीं भी बैठे हों, खड़े हों या सोते हों आपके अपने प्रदेशों में वे वर्गणायें भी स्वतन्त्र रूप से विद्यमान रहती हैं क्योंकि आपके आत्म प्रदेशों के साथ किन्हीं आकाश-प्रदेशों का सम्बन्ध अनिवार्य है। जिन किन्हीं आकाश प्रदेशों पर उस समय आपके प्रदेश होंगे उन्हीं वाली वर्गणाओं की स्थिति आपके प्रदेशों पर भी स्वत: हो जायेगी। ये वर्गणायें एक क्षेत्रावगाह रूप से केवल वहाँ रहती ही हैं, परन्तु बन्ध को प्राप्त न होने के कारण उनका कोई भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध आपके साथ नहीं है। स्वतन्त्र रूप से जीव प्रदेशों में अवस्थित ये वर्गणायें 'विस्रसोपचय' कहलाती हैं। यद्यपि इन्हीं में आहारक वर्गणायें भी हैं और कार्मण वर्गणायें भी, परन्तु बिना बन्ध को प्राप्त हुए न वे शरीर कहलाती हैं और न द्रव्य-कर्म । पूर्व अधिकार में वर्णित जीव के भावों का निमित्त पाकर ये विस्रसोपचय ही द्रव्य कर्म या नोकर्म रूप से परिणत होते हैं, तद्वयतिरिक्त अन्य वर्गणायें नहीं। जीव प्रदेशों पर पहले से एक क्षेत्रावगाह रूप से रहने वाली इन विस्त्रसोपचय वर्गणाओं का कर्म तथा नोकर्म रूप से परिणत हो जाना ही उनका आकृष्ट होना है, अन्यत्र से खिंचकर आती हों ऐसा नहीं है। द्रव्य-कर्म का रूप धारण करके वे वर्गणायें ही शरीर के रूप में जीव के साथ एकमेक हो जाती हैं, और इस प्रकार भीतर में एक सूक्ष्म शरीर का निर्माण करती हैं, जिसे जैन-दर्शनकार कार्मण शरीर कहते हैं । वैदिक दर्शनकार इसे ही सूक्ष्म या लिंग शरीर तथा अन्य दर्शनकार छाया शरीर कहते हैं । यही जीव का मूलभूत शरीर है । क्योंकि जन्म के कारण बाह्य का स्थूल शरीर जिस प्रकार सारा का सारा नवीन बन जाता है और मृत्यु के कारण सारा का सारा छूट जाता है इस प्रकार यह न नवीन कुछ बनता है और न छूटता है। यह अनादि काल से जीव के साथ बन्धा आ रहा है । यद्यपि इसमें से प्रतिक्षण कुछ पुराने प्रदेश झड़ते रहते हैं और कुछ नये मिलते रहते हैं, तदपिसन्तान-क्रम से यह ध्रुव है । जीव के बाह्य शरीरों का अथवा रागादि भावों का प्रेरक तथा प्ररोहक यह ही है । अत: यही मूल संसार है और इसका नाश ही मोक्ष है। प्रत्येक मुमुक्षु को इसका परिचय पाने के लिये करणानुयोग की शरण लेना आवश्यक है।

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