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कर्म सिद्धान्त
६. कर्म परिचय पर्याय रूप। क्योंकि कार्य उसे ही कहते हैं जो किसी एक समय-विशेष में प्रारम्भ होकर किसी दूसरे समय-विशेष में समाप्त हो जाये। अत: कर्म या कार्य नित्य न होकर उत्पन्न-ध्वंसी ही होते हैं। यही लक्षण पर्याय का भी है। अत: सैद्धान्तिक दृष्टि से देखने पर कर्म का अर्थ पर्याय के अतिरिक्त कुछ नहीं। कर्म व कार्य को पर्यायवाची स्वीकार कर लेने पर कहा जा सकता है कि कर्म का कोई न कोई कर्ता या करण अवश्य होना चाहिए। कर्ता व करण दो प्रकार के हैं-उपादान व निमित्त । यहाँ प्रकरणवशात् उपादान कर्ता करण की बात समझना । जो परिणमन करे सो कर्ता, जिस अपने स्वभाव के द्वारा परिणमन करे वह करण और जो पर्याय-विशेष प्रकट हो वही उसका कार्य या कर्म है । इस प्रकार जड़ तथा चेतन दोनों ही पदार्थ स्वयं अपनी पर्याय के कर्ता हैं, उनका स्वभाव करण है और वह पर्याय उनका कर्म है। .. ३. द्रव्यकर्म व भाव कर्म-पर्याय का परिचय पहले दिया जा चुका है, अत: पर्याय वाले सर्व विकल्प कर्म पर लागू करने से वह तीन प्रकार का हो जाता है-गमनागमन-रूप, संकोच-विकास रूप (परिस्पन्दन रूप) और परिणमन रूप। अथवा यों कह लीजिये कि कर्म दो प्रकार का होता है-द्रव्य रूप और भाव रूप । गमनागमन रूप क्रिया द्रव्य-कर्म है और परिणमन-रूप पर्याय भाव-कर्म है। इस प्रकार जीव तथा पुद्गल दोनों ही पदार्थों में दोनों प्रकार के कर्मों की सिद्धि होती है। परन्तु जैसा कि पहिले वस्तु-स्वभाव वाले अधिकार में 'द्रव्य व भाव' के अन्तर्गत बताया जा चुका है, प्रयोजनवशात् पुद्गल को द्रव्यात्मक पदार्थ और जीव को भावात्मक पदार्थ माना गया है; इसीलिए पुद्गल की पर्याय द्रव्य-कर्म और जीव की पर्याय भाव-कर्म है ऐसा ही शास्त्रों में प्रधानता से कथन करने में आया है। पुद्गल की पर्याय क्रिया-प्रधान है और जीव की भाव-प्रधान, इसलिए पुद्गल वर्गणाओं के पारस्परिक बन्ध से जो स्कन्ध बनते हैं वे द्रव्य कर्म हैं, और जीव के उपयोग में रागादि के कारण ज्ञेयों के साथ जो बन्धन होता है वह भाव-कर्म है।
इन दोनों के बीच में जो जीव का 'योग' या प्रदेश-परिस्पन्दन है, उसे यद्यपि हम नद्रव्य-कर्म कह सकते हैं और न भाव-कर्म तदपि यही इन दोनों के मध्य की सन्धि है, जिसके कारण द्रव्य-कर्म रूप पुद्गल-स्कन्ध बनते हैं और जीव-प्रदेशों के साथ बन्ध जाते हैं । क्योंकि उपयोग की भाँति इसका भी सम्बन्ध जीव के साथ है इसलिए यह भी उसका भाव-कर्म कहा जा सकता है।।
- द्रव्य कर्म रूप पुद्गल-स्कन्ध, वर्गणा-भेद की अपेक्षा पाँच प्रकार के बताये गये हैं—आहारक, भाषा, मनो, तैजस व कार्मण । इन पाँचों के पृथक्-पृथक् कार्यों का परिचय भी पहिले दिया जा चुका है.। आहारक वर्गणा से जो जीवों के स्थूल शरीर बनते हैं वे ही जीव निकल जाने के पश्चात् जड़ पदार्थ कहे जाते हैं जैसे पत्थर, धातु, लकड़ी, जल, चमड़ा, हड्डी आदि । अत: जीव के जीवित-शरीर और सकल जड़