Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 40
________________ कर्म सिद्धान्त . . २८ । ६. कर्म परिचय कर्म की भी कोई फलदानरूप प्रकृति होनी चाहिए। कर्म बन्ध तो हो परन्तु उसकी कोई स्थिति या आयु न हो सो असम्भव है । जिस प्रकार सभी पुद्गल-स्कन्धों की तथा शरीरधारी जीव की हीन या अधिक कुछ न कुछ स्थिति अवश्य होती है, जिसके समाप्त होने पर वह जीर्ण हो जाता है या मर जाता है, उसी प्रकार बन्ध को प्राप्त कर्म की भी कोई स्थिति अवश्य होती है जिसके पूर्ण होने पर वह शरीर की भाँति जीव का साथ छोड़ देता है। शुद्ध द्रव्यों की स्थिति अनादि अनन्त होती है, क्योंकि उनकी नवीन उत्पत्ति या नाश नहीं होता; परन्तु बन्ध को प्राप्त अशुद्ध पुद्गल व जीव की स्थिति या आयु अवश्य होती है । बद्ध पदार्थ की स्थूल व्यञ्जन-पर्याय का उत्पत्ति से विनाश पर्यन्त का काल ही उसकी स्थिति है। .. कर्म बन्ध तो हो पर उसका कोई भी तीव्र या मन्द रस या अनुभाग न हो यह 'असम्भव है। प्रकृति तथा अनुभाग में यह अन्तर है कि प्रकृति सामान्य है और अनुभाग उसका विशेष । आम नाम के पदार्थ की प्रकृति तो मीठापन है, पर वह कितना मीठा है, कम या अधिक, सो उसका अनुभाग है। दूध रूप से समान प्रकृति वाले होते हुए भी भैंस के दूध में चिकनाहट अधिक होती है, और बकरी के दूध में कम । इस प्रकार कर्म शक्ति की तरतमता का नाम अनुभाग है। अनुभाग भावात्मक होने के कारण यह अविभाग-प्रतिच्छेद से मापा जाता है, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। आज की भाषा में इसे 'डिग्री' कहा जा सकता है। अन्य स्कन्धों की भाँति कर्म भी क्योंकि पुद्गल-स्कन्ध माना गया है, भले ही वह कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो; इसलिए अवश्य ही उसमें भी एक से अधिक परमाणु या प्रदेश होने चाहियें, क्योंकि अकेला परमाणु बन्ध को प्राप्त नहीं हो सकता। उस कर्म स्कन्ध में स्थित परमाणुओं की संख्या ही यहाँ प्रदेश शब्द की वाच्य है। .. इस प्रकार इन चारों को हम कर्म-बन्ध के स्व-चतुष्टय कह सकते हैं। कार्मण-स्कन्ध रूप द्रव्य-कर्म का पिण्ड स्वयं द्रव्य है, उसमें स्थित प्रदेश उसका क्षेत्र है, उसकी स्थिति काल है और अनुभाग उसका भाव है । स्व-चतुष्टय को धारण करने से यह सत्ताभूत एक पदार्थ है, काल्पनिक वस्तु नहीं। इन चारों को शास्त्र में चार प्रकार का बन्ध कहकर वर्णन किया गया है । जहाँ एक होता है वहाँ चारों अवश्य होते हैं। ऐसा नहीं होता कि प्रकृति व प्रदेश तो हों पर उसकी स्थिति व अनुभाग न हों । कहीं-कहीं प्रयोजनवश ऐसा कहा जाता है कि कषायों का अभाव हो जाने से वीतरागी जनों को बन्धने वाले कर्म में प्रकृति व प्रदेश तो होते हैं पर स्थिति व अनुभाग नहीं होते। यहाँ ऐसा अभिप्राय: जानना कि स्थिति एक समय मात्र है और अनुभाग जघन्य; उनका सर्वथा अभाव बताना इष्ट नहीं है । बन्ध के प्रकरण में ऐसा कहा जाना न्याय-संगत है क्योंकि एक समय मात्र स्थिति को बन्ध संज्ञा प्राप्त नहीं है। कारण कि एक समय की पर्याय शुद्ध द्रव्यों में ही होती है परस्पर संश्लिष्ट अथवा बद्ध अशुद्ध द्रव्यों में नहीं।

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