Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 42
________________ कर्म सिद्धान्त ३० ७. कारण कार्य सम्बन्ध स्वाभाविक होने से निमित्तों की अपेक्षा नहीं करता, परन्तु अशुद्ध कार्य तीन काल में भी निमित्तों के बिना उत्पन्न नहीं होता। सहज तथा स्वाभाविक हो तो उसे अशुद्ध ही न कहें, क्योंकि संयोग से ही पदार्थ अशुद्ध होता है। जैसा कि पहले बन्ध के प्रकरण `में बताया जा चुका है, बन्ध को प्राप्त पुद्गल व जीव दोनों ही नियम से अपने शुद्ध · स्वभाव से च्युत होकर किसी विजातीय भाव को धारण कर लेते हैं। इसे ही वैभाविक परिणमन कहते हैं । उनका कोई भी कार्य क्यों न हो व प्रदेश- परिस्पन्दन रूप हो या भावात्मक, निमित्त की सहयता लेकर ही उत्पन्न होता है । निमित्त भी दो प्रकार का होता है— संश्लेष सम्बन्ध को प्राप्त जैसे कि स्कन्ध में परमाणु या जीव में शरीर, और दूसरा केवल बाह्य का संयोग-विशेष जैसे कि घटोत्पत्ति में कुम्हार । इनमें से पहले की विशेषता का कथन बन्ध-अधिकार में कर दिया गया है, और दूसरे की विशेषता ऊपर दर्शा दी गई है। कर्म - सिद्धान्त का सम्बन्ध इन दोनों ही प्रकार के निमित्तों से है क्योंकि जैसा कि आगे 'द्रव्य कर्म-बन्ध' के क्रम में बताया जाने वाला है जीव के योग का अर्थात् प्रदेश- परिस्पन्दका निमित्त पाकर कार्मण-वर्गणायें उसके प्रति स्वतः आकर्षित हो जाती हैं, और इधर-उधर से गतिमान होती हुई उस जीव के प्रदेशों में प्रवेश करके, द्रव्य-कर्म के रूप में परिणत हो संश्लेष सम्बन्ध को प्राप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार उसी के निमित्त से आहारक वर्गणायें भी नोकर्म के रूप में परिणत होकर उसके शरीर में बन्ध जाती हैं । जीव के उपयोग का अर्थात् मोह-राग-द्वेषात्मक भाव कर्म का निमित्त पाकर वे द्रव्य-कर्म तथा नोकर्म 'अनुभाग तथा स्थिति को धारण करके कुछ काल पर्यन्त उसी अव्यक्त अवस्था में जीव के साथ बन्धे रहते हैं । यह स्थिति पूर्ण होने पर द्रव्य कर्म परिपाक दशा को प्राप्त होकर उदय में आता है अर्थात् फलोन्मुख होता है, जिसका निमित्त पाकर जीव में योग तथा उपयोग उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म और द्रव्य-कर्म से भाव-कर्म की यह अटूट निमित्तनैमित्तिक शृंखला अनादि काल से चली आ रही है । द्रव्य-कर्मोदय के निमित्त बिना जीव में योग उपयोग या भाव कर्म, तथा भाव कर्म के निमित्त बिना द्रव्य-कर्म व नोकर्म रूप शरीर-निर्माण असम्भव है, क्योंकि ये तीनों प्रकार के कर्म जीव व पुद्गल के अशुद्ध कार्य हैं । २. निमित्त - नैमित्तिक भाव- - मूर्त पुद्गल व अमूर्त जीव का परस्पर बन्ध कैसे सम्भव है, इसका समाधान पहले 'जीव परिचय' अधिकार में किया जा चुका है। यहाँ उन दोनों में पारस्परिक निमित्तनैमित्तिक भाव की सिद्धि करता हूँ । देखिये संयोग को प्राप्त पृथक् पड़े जो धन धान्यादि पदार्थ, उनका अथवा संश्लेष को प्राप्त शरीर का जो प्रभाव हम सभी के जीवन पर पड़ता हुआ नित्य प्रतीति में आ रहा है, उसे कौन इंकार कर सकता है । यदि इनमें परस्पर कोई भी सम्बन्ध न होता तो हमारी चित्त-वृत्तियाँ कभी भी इनके प्रति आकर्षित न होती और शरीर में विकार या रोग आदि होने पर

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