Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 39
________________ ६. कर्म परिचय २७ कर्म सिद्धान्त भौतिक पदार्थ एक ही आहारक जाति के हैं जिसे आगम में 'नो कर्म' या 'किञ्चित् कर्म' ऐसी संज्ञा प्राप्त है । कार्मण वर्गणा से जो विशेष प्रकार का स्कन्ध बनता है उसे 'द्रव्य-कर्म' कहा गया है। जीव के योग तथा उपयोग के निमित्त से होते हैं इसलिए तथा जीव के बाह्य तथा भीतरी शरीर का निर्माण करते हैं इसलिए इन दोनों को जीव का कर्म कहना न्याय संगत है । भाव- कर्म जीव के उपयोग रूप होता है। संकल्प - रूप होने से वैसे तो उन सूक्ष्म भावों की गणना कौन कर सकता है, परन्तु परिचय देने के लिए स्थूल रूप से उन्हें १४ प्रकार का बताया गया है— मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुंसकवेद । मिथ्यात्व उस भीतरी सूक्ष्म विपरीत धारणा का नाम है, जो अतत्त्व में तत्त्व की और अतथ्य में तथ्य की कल्पणा कराये बैठी है; चेतन तत्त्व का भान होने नहीं देती और शरीर, इन्द्रिय तथा उनके विषयों में ही मैं व मेरे पने की अथवा इष्ट-अनिष्टपने की कल्पना बनाये रखती है । क्रोध आदि सकल कषायों का बीज होने के कारण यह ही सबका गुरु या पिता है। क्रोध, मान, माया, लोभ सर्व परिचित हैं । रति नाम इष्ट-विषयों में आसक्ति का है और अरति अनिष्ट-विषयों में अनासक्ति का । हास्य, शोक व भय परिचित हैं । विष्टा आदि पदार्थों में ग्लानि के भाव को जुगुप्सा कहते हैं। पुरुष के साथ मैथुन के भाव को स्त्री-वेद, स्त्री के साथ मैथुन के भाव को पुरुषवेद और दोनों के साथ मैथुन के भाव को नपुंसक वेद कहते हैं । इनमें से मिथ्यात्व का नाम 'मोह' है और क्रोधादि १३ भाव राग द्वेष में गर्भित हो जाते हैं । क्रोध, माया, अरति, शोक, भय जुगुप्सा ये ६ भाव द्वेष हैं और शेष ७ राग । इस प्रकार भाव- कर्म तीन प्रकार का है— मोह, राग तथा द्वेष । राग भी दो प्रकार का है— शुभ और अशुभ । पूजा, दया, दान, संयम, तप आदि शुभ और हिंसा, असत्य आदि अशुभ हैं। शुभ को पुण्य और अशुभ को पाप कहते हैं । द्वेष सर्वथा अशुभ या पापरूप ही होता है । 1 ४. चतुःश्रेणी बन्ध - द्रव्य - कर्म को यहाँ कुछ विस्तार के साथ बताना इष्ट है । अन्य पदार्थों की भाँति इसका बन्ध भी चार अपेक्षाओं से पढ़ा जा सकता है— प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश । जैसा कि आगे बताया जायेगा ये चारों अपेक्षायें वस्तु के स्व-चतुष्टय ही हैं अर्थात् द्रव्य क्षेत्र काल भाव ही हैं अन्य कुछ नहीं । कार्मण वर्गणा से निर्मित होने के कारण वह द्रव्य है। ज्ञान आदि को आवृत या विकृत करने का स्वभाव उसकी प्रकृति है । कार्मण शरीर के आकार वाला होना उसका स्व-क्षेत्र है जिसका मान उसके प्रदेशों से किया जाता है। किसी निश्चित काल तक जीव के साथ रहना उसका स्व-काल है और वही उसकी स्थिति कहलाती है। उसकी तीव्र या मन्द फलदान शक्ति उसका स्व-भाव है जिसे यहाँ अनुभाग कहा जाता है । कर्म-बन्ध तो हो परन्तु उसकी कोई प्रकृति स्वभाव या जाति न हो, यह असम्भव है । जैसे पुद्गल की प्रकृति रूप रसादि है और चेतन की ज्ञान, उसी प्रकार

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