Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 19
________________ २. वस्तु स्वभाव कर्म सिद्धान्त जिसके कारण हर परिस्थिति में वस्तु अपने स्वरूप को सुरक्षित रखती है क्योंकि स्वभाव स्वत: सिद्ध तथा पर-कर्तृत्व से निरपेक्ष होता है । इन सर्व सामान्य-गुणों के समुदाय रूप वस्तु का स्वभाव स्वयं सत्, नित्य तथा अनादि है अर्थात् किसी के द्वारा भी बनाया या बिगाड़ा नहीं जा सकता। हम या तुम या कोई भी अन्य निमित्त उस सद्भूत वस्तु के स्थूल परिवर्तन में यद्यपि सहायक हो सकता है, पर उसके स्वरूप को बदल देना अथवा कोई अभूतपूर्व नई वस्तु गढ़ कर खड़ी कर देना सम्भव नहीं है, और न ही किसी भी मौलिक वस्तु का बीज-नाश किया जाना ही सम्भव है । असत् की उत्पत्ति तथा सत् का विनाश तीन काल में भी किसी के द्वारा सम्भव नहीं । कोई ईश्वर या दिव्य शक्ति भी ऐसा करने को समर्थ नहीं । ३. वस्तु विभाग - इस वस्तु- सामान्य को जड़ तथा चेतन रूप दो जातियों में विभाजित किया जा सकता है। जड़ वस्तु यद्यपि पाँच प्रकार की है, परन्तु प्रकृत विषय में जिसका ग्रहण है वह रूप, रस, गन्ध युक्त तथा सर्व परिचित यही मूर्तीक वस्तु है, जिससे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का अथवा चित्र विचित्र शरीरों का अथवा घट पट आदि भौतिक पदार्थों का निर्माण होता है। इसे आगम में 'पुद्गल' नाम दिया गया है | चेतन वस्तु को कहीं 'आत्मा' और कहीं 'जीव' कह दिया जाता है। अकेले चेतन hat आत्मा और शरीर सहित को जीव कहते हैं। यह कहने मात्र की विवक्षा है, वास्तव इनमें कोई मौलिक भेद नहीं है। आत्मा या जीव एक अमूर्तिक तथा असंयुक्त वस्तु है, हवा मात्र या कल्पना मात्र नहीं । इन्द्रियों से देखी नहीं जाती पर सत्ता से शून्य नहीं है । इन्द्रिय-गोचर ही वस्तु हो ऐसा कोई नियम नहीं है। पुद्गल व जीव दोनों यद्यपि एक दूसरे से विलक्षण हैं परन्तु उपरोक्त छहों सामान्य गुणों से युक्त हैं । दोनों ही सत् हैं और इसलिए अनादि-निधन हैं। इनको न किसी ने बनाया है और न कभी इनका नाश हो सकता है। इनकी गणना में भी हानि - वृद्धि सम्भव नहीं । जीव की जो मृत्यु होती देखी जाती है वह उसका नाश नहीं है, परिवर्तन मात्र है। एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाना मात्र है। इसकी सत्ता में भी किसी ईश्वरीय शक्ति का हाथ नहीं है । दोनों ही द्रव्यत्व गुण-युक्त होने से परिणमन स्वभावी हैं, कूटस्थ नहीं । अगुरुलघु गुण के कारण दोनों ही परिणमन करते रहने पर भी अपने-अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते। भले ही परस्पर के संयोग से दोनों घुल-मिल जायें पर अपने-अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं, अपनी जाति का उल्लंघन नहीं करते । दोनों ही परस्पर मिलते व बिछुड़ते रहते हैं । जाति की अपेक्षा एक-एक हैं, पर व्यक्तियों की अपेक्षा अनन्त अनन्त हैं । ४. स्वचतुष्टय — अस्तित्व आदि छह सामान्य गुणों वाली वस्तु का स्वरूप जान लेने के पश्चात् यह भी जानना आवश्यक है कि यद्यपि वस्तु अखण्ड है तदपि अपेक्षावश उसमें तीन प्रकार के विशेष देखे जा सकते हैं - क्षेत्रात्मक, कालात्मक व

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