Book Title: Karma Siddhanta
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 25
________________ ३. पुद्गल परिचय ( १. पुद्गल, २. पुद्गल बन्ध, ३. जाति भेद ४.शरीर। ) .१. पुद्गल जीवों की विषमता का मूल कारण कर्म है जिसकी व्यवस्था परिणमनशील वस्तु-स्वभाव के आधीन है, इतना जान लेने के पश्चात् अब यहाँ पुद्गल नाम वाले जड़ पदार्थ का कुछ परिचय दे देना आवश्यक है, क्योंकि प्रकृत विषय से उसका बहुत घनिष्ट सम्बन्ध है । पुद्गल को यद्यपि इन्द्रिय-गोचर बताया गया है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय-ग्राह्य ये सर्व जागतिक पदार्थ मूलभूत पुद्गल नहीं हैं, बल्कि उसकी संयोगी अथवा स्थूल-द्रव्य या व्यञ्जन पर्यायें हैं, जिन्हें स्कन्ध कहते हैं। मूलभूत पदार्थ परमाणु है। किसी भी दृष्ट पदार्थ को कल्पना द्वारा तोड़ते-तोड़ते जब अन्तका वह भाग प्राप्त हो जाये जिसको आगे तोड़ा जाना सम्भव न हो सके, उसे परमाणु कहते हैं। यह एक प्रदेशी होता है अर्थात् सबसे छोटा होता है। आजके विज्ञान द्वारा स्वीकृत अणु भी, जो वास्तव में परमाणु नहीं स्कन्ध है, जब इतना सूक्ष्म होता है कि यन्त्र के बिना देखानजा सके तो परमाणु की तो बात ही क्या। अपनी सूक्ष्मता के कारण, एक आकाश प्रदेश पर अनन्तों परमाणु एक दूसरे में समाकर निर्बाध रूप से रह सकते हैं और लोकाकाश में एक-एक प्रदेश पर इसी प्रकार रह रहे हैं। एक दूसरे में अनुप्रवेश करके रहने की बात इन दृष्ट पदार्थों में दिखाई नहीं देती। ये एक दूसरे से टकराते हैं। इसका कारण उनका स्थूलपना है। सूक्ष्म व स्थूल की व्याख्या आगे की जायेगी, यहाँ केवल इतना समझना कि स्थूल तो केवल स्कन्ध ही होता है और सूक्ष्म परमाणु तथा स्कन्ध दोनों । इसीलिए इन दृष्ट पदार्थों को मूल पुद्गल नहीं कहा गया है। मूल पदार्थ अनादि निधन, सर्वदा अवस्थित और संयोग वियोग की अपेक्षा से शून्य हुआ करता है, इसीलिये वह शुद्ध कहलाता है। यद्यपि जगत में पृथ्वी,अप, तेज, वायु, शरीर आदि स्कन्धों की अनेक चित्र विचित्र जातियाँ देखी जाती हैं, परन्तु उनके कारणभूत मूल परमाणु की एक ही जाति है । आज का विज्ञान भी यह बात स्वीकार करता है। स्कन्ध तो संयोगी होने के कारण बनते बिगड़ते रहते हैं इसलिये खण्डित तथा सादिसान्त होते हैं, परन्तु परमाणु एक दूसरे के साथ संयोग व वियोग को प्राप्त होता हुआ भी न नया बनता है और न बिगड़ता है, इसलिये अखण्ड है और अनादि अनन्त है। यह एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्वयं जाने को समर्थ होने से क्रिया स्वभावी है। २. पुद्गल-बन्ध-परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप ये चार प्रधान गुण तो हैं ही, इनके अतिरिक्त उसमें स्निग्ध तथा रूक्ष रूप से परिणमन करने की शक्ति भी स्वाभाविक है। उसकी यह शक्ति ही वास्तव में जागतिक चित्र-विचित्र पदार्थों की तथा जीव के शरीरों की जननी है, क्योंकि इसके प्रताप से ही वे, एक दूसरे के बन्ध को

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