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जिन सूत्र भाग: 2
'सुनकर ही कल्याण का - आत्महित का मार्ग जाना जा सकता है।' सुनकर ही । 'सुनकर ही पाप का मार्ग भी जाना जा सकता है। अतः सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो श्रेयस हो उसका आचरण करे।'
जाओ उनके पास, जो जाग गये हैं। बैठो उनके पास, जो जाग गये हैं। डूबो उनकी हवा में, जो जाग गये हैं। उनकी तरंगें तुम्हें जगायें। सत्संग का इतना ही अर्थ है। सुनो उन्हें, जिन्होंने पाया है । उनके शब्दों में भी शून्य होगा। उनकी आवाज में भी मंत्र होगा। उनके इशारे में भी तुम्हारे जीवन की नाव निर्मित हो जाएगी। सुनकर ही । और उपाय भी तो नहीं है।
गुरजिएफ कहता था - इस सदी का एक बहुत बड़ा तीर्थंकर – कहता था, हमारी हालत ऐसे है जैसे रेगिस्तान में, | जंगल में, निर्जन में कुछ यात्री रात पड़ाव डालें। खतरा है। बीहड़ है। जंगली पशु हमला कर सकते हैं। डाकू-लुटेरे छिपे हों । अनजान जगह है। अपना कोई नहीं, पहचान नहीं। ऐसा ही तो संसार है। तो क्या करे यात्रीदल ? एक को जागता हुआ छोड़ देता है कि कम कम एक जागता रहे, बाकी सो जाएं। फिर पारी- पारी से और लोग जागते रहते हैं। जो जागा है, वह खुद के सोने के पहले किसी और को उठा देता है। कम से कम एक दीया तो जलता रहे अंधेरे में। कम से कम कोई एक तो जागकर देखता रहे। खतरा आये तो हमें सोया हुआ न पाये।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि तुम जब सोये हो तब कोई तुम्हारे पास में बैठा हुआ, जागा हुआ है। तुम तो सोये हो, तो सपने में डूब जाओगे। तुम तो न मालूम कितने वासनाओं, कल्पनाओं के लोक में भटक जाओगे। तुम तो न मालूम कितने मन के खेलों में डूब जाओगे। लेकिन जो जागा है, वह यथार्थ को देखता रहेगा । उसे सुनो। जब जागा हुआ कुछ कहे, तो सुनो, समझो। जागे हुए के साथ तर्क का सवाल नहीं है, क्योंकि उसकी भाषा बड़ी और है। उससे तर्क करके तुम कुछ भी न पाओगे। उससे तर्क करके केवल तुम बंद रह जाओगे । जागे के साथ तर्क नहीं हो सकता। जागे के साथ तो केवल श्रवण हो सकता है। उससे विवाद नहीं हो सकता, केवल सुनना हो सकता है। वह जो कहे, उसे पीओ। वह जो कहे, तुम्हारे सोचने का सवाल उतना नहीं है जितना पीने का सवाल है । क्योंकि वह जो कह रहा है, उसे
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पीकर ही तुम समझ सकोगे कि सही है या गलत है। और तो कोई उपाय नहीं ।
लेकिन अगर ठीक से सुना गया, तो सत्य की महिमा है कि ठीक से सुननेवाले को सत्य तत्क्षण हृदय में चोट करने लगता है। कहा गया अगर असत्य है, तो ठीक से सुनते समय ही साफ हो जाता है कि असत्य है। तय नहीं करना पड़ता, विचार भी नहीं करना पड़ता । असत्य के कोई पैर ही नहीं हैं। पैर तो सत्य के हैं। असत्य तो तुम्हारे हृदय तक जा ही नहीं सकता । असत्य तो लंगड़ा है। असत्य तो बाहर ही गिर जाएगा। तुम अगर शांत बैठे सुनने को तैयार हो, तो घबड़ाओ मत कि कहीं ऐसा न हो कि असत्य भीतर प्रवेश कर जाए । असत्य तो तभी प्रवेश करता है जब तुम शांत, मौन श्रवण नहीं करते। तुम्हारी नींद के द्वार से ही असत्य प्रवेश करता है। तुम्हारी मूर्च्छा से ही प्रवेश करता है ।
अगर तुम सजग होकर सुनने बैठे हो, तो असत्य गिर जाएगा बाहर । तुम्हारी आंख का सामना न कर सकेगा असत्य। वह शांत सुननेवाले के प्राण पर्याप्त हैं असत्य को गिरा देने को । जो सत्य है, वही चला आयेगा चुंबक की तरह खिंचता हुआ। जो सत्य है वही तुम्हारे प्राणों में तीर की तरह प्रवेश कर जाएगा। जो असत्य है, बाहर रह जाएगा। तुम सत्य हो, तुम सत्य को ही खींच लोगे ।
लेकिन अगर तुमने ठीक से न सुना, अगर तुमने विचार किया, तुमने सोचा, तुमने कहा यह ठीक है या नहीं, मेरी अतीत मान्यताओं से मेल खाता, नहीं खाता, तो संभव है कि असत्य तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाए। असत्य बहुत तार्किक है। जीवंत तो जरा भी नहीं, लेकिन बड़ा तर्कयुक्त है।
सत्य के पास कोई तर्क नहीं, कोई प्रमाण नहीं। सत्य अस्तित्ववान है, वही उसका प्रमाण है। इसलिए शास्त्र कहते हैं सत्य स्वयं प्रमाण है। असत्य स्वयं अप्रमाण है। सुन लो ठीक से। उस सुनने में ही चुनाव हो जाएगा।
'सोच्चा जाणइ कल्लाणं ।' सुनकर ही कल्याण का पता चल जाता है कि क्या है कल्याण | 'सोच्चा जाणइ पावगं ।' सुनकर ही पता चल जाता है कि पाप क्या है, गलत क्या है, अल् क्या है ? और महावीर की बड़ी खूबी है; वे कहते हैं मेरे पास कोई आदेश नहीं है। मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम ऐसा करो । महावीर कहते हैं, तुम सिर्फ सुन लो
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