Book Title: Jin Samasta Ardhyavali Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ श्री शीतलनाथ जिन जल गंध अक्षत फूल चरु दीपक सुधप कही महा। फल ल्याय सुन्दर-अरघ कीन्हो दोष सो वर्जित कहा।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे। मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। श्री श्रेयांसनाथ जिन अब करियत अध्य, मेल्हि के द्रव्य आठो। मन वचन तन लीन्हें, हाथ उच्चारि पाठों।। लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। श्री वासुपूज्य जिन ले आठों द्रव्य सुहाई, जल आदिक जे शुभ लाई। ___ पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अनध्यपदप्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 47

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116