Book Title: Jin Samasta Ardhyavali Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 99
________________ निज-शक्ति अनुसार जनूँ मैं, कर समाधि पाऊँ शिव-खेत || ओं ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धी समस्त-कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालय-सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा (कविश्री युगलजी) क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है | काषायिक भाव विनष्ट किये, निज-आनंद अमृत पीता है || अनुपम-सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जगमग करता है | दर्शन-बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अरिहन्त-अवस्था है || यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु! निज-गुण का अर्घ्य बनाऊँगा | और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अरिहन्त-अवस्था पाऊँगा || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। विद्यमान बीस तीर्थंकरों जल-फल आठों दरव, अरघ कर प्रीति धरी है, गणधर इन्द्रनि हू तें, थुति पूरी न करी है | 'द्यानत' सेवक जानके (हो), जग तें लेहु निकार || सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह-मँझार | श्री जिनराज हो, भवि-तारणतरण जहाज (श्री महाराज हो) || ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभाननअनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-ज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजंगमईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्य इति विदेह क्षेत्रे विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा 99

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