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श्री जिनसहस्रनाम
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः |
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाममहं यजे || ॐ ह्रीं श्रीभगवज्जिन अष्टाधिक सहस्रनामेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा / ३ /
समुच्चय पूजा अष्टम-वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये | सहज-शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज-गुण प्रगट किये || ये अर्घ समर्पण करके मैं, श्री देव - शास्त्र - गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः
श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यः अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
(जोगीरासा छन्द)
भूत-भविष्यत्-वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ | चैत्य-चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन-लोक
के मन लाऊँ ||
ओं ह्रीं त्रिकालसम्बन्धी तीस चौबीसी, त्रिलोकसम्बन्धी कृत्रिमाकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्यभक्ति आलोचन चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत | कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक में, राजत हैं जिनबिम्ब अनेक || चतुर निकाय के देव जैं, ले अष्टद्रव्य निज-भक्ति समेत |
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