________________
श्री कुंथुनाथ जिन पर द्रव्यों का भोग अभी तक, किया बहुत मैंने स्वामी। पर पद की अभिलाषा में ही, जीवन व्यर्थ किया स्वामी।।
जड़ वैभव को चढ़ा आज, चैतन्य विभव पाने आये।
कुंथुनाथ जिनराज शरण में, अर्घ्य बनाकर ले आये।।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अरनाथ जिन पद मद में हो आसक्त, निज पद को भूला। जब हुआ दर्श अनुरक्त, मुक्तिद्वार खुला।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया।
हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मल्लिनाथ जिन अर्घ्य अर्पण कर निज गुण में लीन रहूँ। जिन समान ही शीघ्र नाथ अरिहंत बनँ।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शनर मैं करूँ।
पूजन करके मुक्तिवध् को मैं वरूँ॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
59