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श्री ऋषि-मंडल जल-फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ सुन्दर कर लिया | संसार रोग निवार भगवन् वारि तुम पद में दिया || जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा || ओं ह्रीं श्री सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय, रोग-शोक-सर्वसंकट-हराय सर्वशान्ति-पुष्टि कराय श्रीवृषभादिचौबीस-तीर्थंकर, अष्टवर्ग, अरहंतादि-पंचपद, दर्शन ज्ञान-चारित्र, चतुर्णिकाय-देव, चार प्रकार अवधिधारक-श्रमण, अष्ट-ऋद्धि-युक्त ऋषि, चौवीस देवी, तीन ह्रीं, अहँत-बिम्ब, दसदिग्पाल इति यन्त्र-सम्बन्धि-देव-देवी सेविताय परमदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सरस्वती-माता जल चंदन अक्षत, फूल चरू अरु, दीप धूप अति फल लावे | पूजा को ठानत, जो तुहि जानत, सो नर ‘द्यानत' सुख पावे || तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई | सो जिनवर-वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई || ओं ह्रीं श्री जिन-मुखोद्भूत-सरस्वतीदेव्यै अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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