Book Title: Jain Tark Bhasha Author(s): Shobhachandra Bharilla Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board View full book textPage 6
________________ * प्रस्तावना * 'जैनतर्कभाषा' तर्कशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी रचना उपाध्याय यशोविजयगणीने १८ बीं शती में की थी। उन्होंने जैन एवं जैनेतर दर्शनों का विधिपूर्वक अध्ययन किया और जैन-दर्शन की बहुत सी समस्याओं का पर्यालोचन करने में अपनी योग्यता का परिचय दिया है। उदाहरणस्वरूप उन्होंने ज्ञानावरण की जो व्याख्या की है वह वेदांत की मूलाविद्या और त्लाविद्या के सिद्धान्त से मिलती है। इसीप्रकार बहुत सी अन्य बातों को भी जैन तर्कशास्त्र में प्रविष्ट किया, जो उनकी मौलिक देन है। अगले पृष्ठों में उनके जीवन तथा इस देन का संक्षिप्त परिचय दिया जायगा। जीवन-परिचय - यशोविजय के संबंध में भनेक कथाएँ एवं किंवदंतियाँ प्रचलित थीं। किंतु जबसे 'सुजशवेली भास' नामक ग्रंथ उपलब्ध हुआ, इस संबंध में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हो गई है। यह ग्रंथ पुरानी गुजराती में पद्यात्मक है और यशोविजय के समकालीन कांतिविजय गणी की रचना है। उपाध्यायजी का जन्म कलोल के निकटस्थ ‘कनोडु' नामक ग्राम में हुआ था, जो अब भी विद्यमान है। वहाँ नारायण नामके व्यापारी रहते थे, पत्नी का नाम था-सोभागदे । उनके दो पुत्र थे-जसवंत और पद्मसिंह । एकबार पंडितवर्य मुनिश्री नयविजय पाटण के समीपवर्ती 'कुंणगेर' नामक ग्राम से विहार करते हुए 'कनोडु' आये । वे अकबरप्रतिबोधक जैनाचार्य श्री हरिविजयसूरि की शिष्यपरंपरासें संबद्ध थे। उपदेश सुनकर दोनों कुमार उनके साथ हो लिए और वि. सं. १६८८ में पाटण पहुँचकर दीक्षा ले ली। उसी वर्ष श्री विजयदेव सूरि ने उन्हें बड़ी दीक्षा दी। उस समय उनकी आयु क्रमशः १० और १२ वर्ष के लगभग थी। दीक्षा के उपरांत जसवंत का यशोविजय और पद्मसिंह का पविजय नाम हो गया। उपाध्याय यशोविजय ने अपनी कृतियों में पद्मविजय का सहोदर के रूप में स्मरण किया है। वि. सं. १६९९ में यशोविजय अहमदाबाद पहँचे और वहाँ आठ अवधान किए। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर स्थानीय धनजी सूरा नामक व्यापारी ने नयविजयजी से अनुरोध किया कि यशोविजय को काशी भेजकर विद्याध्ययन करना चाहिए । इसके लिए उन्होंने २००० दीनारें खर्च करने का वचन भी दिया और हुंडी लिख दी। नयविजय यशोविजय को लेकर काशी पहुंचे और वहाँ ३ वर्ष रहे । यशोविजय ने किसी भट्टाचार्य के पास नव्यन्याय का अध्ययन किया। काशी में शास्त्रार्थ भी किया, और विजय के उपलक्ष्य में 'न्यायविशारद' उपाधि प्राप्त की। साधारणतया यह प्रचलित है कि उन्हें 'न्यायाचार्य' पदवी मिली थी। किंतु 'सुजशवेलीभास' में इसका उल्लेख नहीं मिलता।Page Navigation
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