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जनसिद्धांतसंग्रह। त्रसहिंसाको त्याग, वृया थावर न संघारे । परवधकार कठोर निन्य, नहिं बयन उचारै॥९॥ मलमृतका बिन और, लाहिं कछु गहै अदचा। निन बनिता बिन और, नारिसौं रहे विरता ॥ अपनी शक्ति विचार, परिग्रह योरो राखें । दस दिश.गमन प्रमाण ठान, जल सीम न नावें॥ ताहूमें फिर प्राम, गली गृह बाग बमारा । गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा.॥ काकी धन हानि, किसी नय हार न चित। देय न सो उपदेश, होय अप बनन कृषीत ॥११॥ कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधे । असि धनु हल हिंसोप-करण नहिं दे यश लाथै ॥ राग द्वेष करतार, कया कबहूँ न मुनीने । औरहु अनरथ दंड, हेतु अब तिन्है न कीन ॥१२॥ घर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये । पर्व चतुष्टै माहि, पाप तज़ प्रोषष धरिये ॥ भोग और उपभोग, नियमकर ममत निवार । मुनिको भोजन देय, फेर निज करहि अहार ॥१॥ चारह व्रतके अतीचार, पन पन न लगावै । मरण सम संन्यास, धार तमु दोष नशावै ॥ . यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपनावे । तहते चय नर जन्म, पाय मुनि हो शिव नावै ॥१४॥