Book Title: Jain Siddhanta Sangraha
Author(s): Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar

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Page 386
________________ 'जैन सिद्धांतसंग्रह | [ ४२५ सो थिरता नहिं चंपक कहावें ॥ ६ ॥ धानत प्रीति सहित सिर नावें । जनम जनम यह भक्ति कमावें ॥ ७ ॥ T अष्टम आरती । -करो भारती वर्द्धमानकी । पावापुर निवारण थानकी ॥ टेक ॥ राग विना सब जगमन तारे । दोष बिना सब कर्म विदारे ॥ १॥ सील धुरन्धर शिव तिय भोगी । मन वच काय न कहिये योगी ॥१॥ रत्नत्रय निधि परिग्रहहारी । ज्ञानसुषा भोजन व्रतवारी शा लोक अलोक व्याप निनमाहीं । सुखमैं इन्द्री सुख दुःख नाहीं ॥ ४ ॥ पञ्च कल्याणक पूज्य विरागी । विमल दिगम्बर अम्बरत्यागी ||५|| गुणपुनि भूषण भूषण त्वामी । तीन लोकके अंतरयामी ॥ ६ कहैं कहां लो तुम सब जानो । द्यानतका अभिलाष प्रमानो ||७|| नवमी आरती | क्या ले आरती भगति करेंगी । तुम लायक नहि हाथ परैजी ॥टेक॥ क्षीर उदधिको नीर चढायौ । कहा भयो मैं भी . जलः लायो ॥१॥ उज्जल - मुक्ताफलसों पूनें । हमपै तन्दुक और न दूजे ॥ ९ ॥ कल्पवृक्ष फनफूल तुम्हारे । सेवक क्या ले भगति विथारे ॥ २ ॥ तनसु चंदन नगर न लागे । कौन सुगन्ध धेरें तुम आगे ॥ ४ ॥ नख सम कोटि चन्द्र रवि नाहीं । दीपक जोति कहो किह माहीं || ९ || ज्ञान सुधा भोजन वृतधारी । नेवद कहा करे संसारीं ॥ ६ ॥ चानत शक्ति समान चढावै । कृपा तुम्हारीसे सुख पावे ॥ ७ ॥ दशम आरती ! मंगळ मारती आतमराम । तन मंदिर मन - उत्तम ठाम

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