Book Title: Jain Siddhanta Sangraha
Author(s): Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
View full book text
________________
जैनसिद्धांतसंग्रह।
[४२३
॥ टेक ॥ ना लक्ष्मीके सब भमिलाषी । सो साधनि कर्दम वतनाषी ॥१॥ सब जग जीव लियो जिननारी। सोसापनि नागनिवत छारी ॥९॥ विषयनि सब जियको चप्सकीने। ते सापनि विषवत तन दीनें ॥ ३ ॥ भुन्नों राज चहत संब प्राणी । जीरण तृणवत सागो ध्यानी ॥४॥ शत्रुमित्र सुख दुःख सम माने। लाभ भलाभ नरावर माने |॥ ५ ॥ छहों काय पीहर व्रत धारें। सबको माप समान निहारें ॥ ६ ॥ यह भारती पढ़े जो गावै । धानत मनवांछित फल पावै ॥ ७॥
चौथी आरती। किसविधि भारती करौं प्रभु तेरी । अगम अकथनस बुध नहिं मेरी ॥ टेक ॥ समुद्रविगै सुत रनमतिकारी । यौँ कहि थुति नहि होय तुम्हारी । कोटि स्वम्म वेदी छवि सारी । समोशरण युति तुमसे न्यारी ॥२॥ चारि ज्ञानयुत जिनकेस्वामी। सेवकके प्रभु अन्तरयामी ॥३॥ सुनिक वचन भविक शिव नाहि । सो पुदगल 'मैं तुमगुण मांहि ॥ ४ ॥ मातम नोति समान बताऊं । रविशशिदीपक मूढ कहावं. ॥ ६ ॥ नमत त्रिनगपति शोमा उनकी। तुम शोभा तुममें निन गुणकी ॥ मान सिंह महाराजा गावै । तुम महिमा तुमही बनि भावै॥
पांचमी आरती। यह विधि भारती करुं प्रभु तेरी । ममक अवाधित निन गुण केरी ॥ टेक ॥ अचक अखंड मतुल अविनाशी । लोकालोक सकल परकाशी ॥१॥ ज्ञान दरश मुख बक गुणधारी । परमातम मविकल अविकारी ॥२॥ क्रोष मादि रागादिक तेरे । जन्म

Page Navigation
1 ... 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422