Book Title: Jain Siddhanta Sangraha
Author(s): Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
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जैनसिद्धांतसंग्रह। वे मति निर्दय घात ही, यह अति दीनविषाय ॥१९॥ वण वेदननीकी करें, ऐसे कर विश्वास । सींचे खारे क्षार सों, ज्यों मति उपने त्रास ||५|| बेई जकड़ मनीर सो, खेचि खभते वाधि। . . सुधि कराय अघ मारिये, ताना भायुध साधि ॥ ५॥ मिन उद्धत अभिमान सों, कीने परमव पाप । तपत लोह भासन विष, त्रास दिखा थाप ॥ १२ ॥ वाती पुतली कोहकी, काय लगावें अंग। प्रीति करी मिन पूर्व भव, परकामिनके संग ॥ ५ ॥ कोचन दोषी नानिक, लोचन हिं निशक। मदिरा पानी पुरुषकों, प्यावे वो गाळ ॥ ५ ॥ 'मिन मंगन सों मघ किये, तेई छेदे नाहिं। पल भक्षण के पाप ने, नोड़ २ कर खाहिं ॥ १५ ॥ केई पाव वरकों, याद दिवावे नाम । कहि दुर्वचन अनेक विधि पर कोय संग्राम ।। ५६ । भये विक्रिया देह सों, बहु विधि मायुध जात । तिनही सो अतिरिस भरे, करें परस्पर घात ॥ १७॥ . सिथिल होय चिर युद्धते, दीन नारकी नामि ।
हिंसानंदी असुर दुठ, मान करावे ताम ||६८॥ सोरा-त्रिसिय नरक परयंत, मसुरो दीरघ दुःख है। .
म.पो नैन सिद्धान्त, अमर गमन आगे नहीं ॥ १९ ॥ दोहा-इहि विधि नरक निवासमें, चैन एक पल नाहिं।
सपै निरन्तर नारकी, दुख दावानल माहि ॥ ६॥
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