Book Title: Jain Siddhanta Sangraha
Author(s): Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar

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Page 394
________________ जैनमिद्धांतसंग्रह। सब क्रोधी कलही सकल, सबके नत्र फुलिंग। दुख देनेको अधि निपुण, निठुर नपुंमक किंग ॥ ३८ ॥ कुंत कुषाण कमान शर, शकती मुगदर दंड । इत्यादिक आयुष विविध, लिये हाथ परचंड ॥ ३९ ॥ कहि कठोर दुरबचन बहु, तिल९ खडे काय | सो तबही ततकाल तनु. पारावत मिल जाय ॥ ४० ॥ फाटे कर छेर्ने चरण, भेदें परम बिचार । अस्थि बाल चूरण करें, कुचले चाम उपार ॥ १६ ॥ चीरें करवत काठ ज्यों, फार परि कुठार । । तोड़ें अन्तरमालिका, अन्तर उदर विदार ॥ ४ ॥ पर केल मेलके, पीसें घंटी घाल। तावें ताने तेलमें, दहे दहन पर जाल |॥ १३ ॥ परि पाप पटके पुइमि, झटक परस्पर लेहि । कंटक सेन मुवावहि, सूली पर दहि ॥ १४ ॥ घिस माटक रूखसो, वैतरणी ले जाहिं। धायक घेरं वसीटिये, किंचित करुणा नाहि ॥ .. || कई क्त चुचात तन, विह्व: भाजे ताम | परमत अन्तर नायके, करो बैठि विश्राम ॥ ४ ॥ तहां भयानक नारकी, घारि विक्रिया मेष । वाघ सिंह माहि रूपसों, दारे देह विशे॥ ४ ॥ अ सो .गाय गहि, गिरिसों ने गिराय । परे अनि दुमिपै, खण्ड २ खण्ड हो जाय ||८|| दुख मो कायर चित्त कर; हें शरण सहाय। . २०

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